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क्योंकि सन्देह नहीं हैं तुम्हारे होने में। आश्वस्त हूँ कि तुम हो ही, मैं भी हूँ ही, सदा रहेंगे दोनों : फिर खटका किस बात का ?"
वियोग भी तो होता है, पारस । तुम नहीं दीखो तो मन न जाने कैसा कैसा होने लगता है !"
"तुम मुझे कहाँ देखती हो ? देखा होता, तो न देखने की बात कहाँ से आ गयी, माँ "
"इतने दिनों जो नहीं दीखे तुम !"
"आँखों देखना हो क्या कुल देखना हैं, मौं ? आँख कितना देख पाती है ? क्षण-भर, कण-भर । कुल वह कहीं देख पाती है ! कुल पारस देखो, तो फिर यह ओझल हो ही नहीं सकता। वह स्वभाव नहीं।"
''बाबा, तुम्हारी ये बातें मेरे बस की नहीं। मैं हारी तुमसे !" "हप जीत गये न, माँ ! तुम बहुत अच्छी हो, मौं।"
"सुना है, विन्ध्याचल घूम आया है रे तू ? जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरता है। तू भला, और तेरा घोड़ा भला ।' "अपन, इ-छा
गुरसरता नहीं, पौं।'' "मतलव ?" "मतलब यह कि जो होता है, होता है। करते ही बनता है।" ''इच्छा बिना कोई कैंसे कुछ कर सकता है, पारस " "कर तो रहा हूँ, और तुम देख भी रही हो !' "इच्छा विना तो कोई जी भी कैसे सकता हैं ?" "जी तो रहा हूँ, माँ ! और बड़े आनन्द से जी रहा हूँ।"
"समझी नहीं !" _ 'यही कि, न चाहते भी तुम्हारी वाराणसी का सारा राज-वैभव, मेरे भोग को प्रस्तुत है। नहीं भीगता इसे, तो मेरे पीछे भागा फिरता है, कि मुझे भोगो। और भोगते ही बनता है। भोगना और न भोगना, दोनों मेरे मन एक ही बात है, माँ।" ___ "कहाँ भोगते हो ? भागे तो फिरते हो !'
26 : एक और नीलांजना