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नयी रोशनी डाली है, नयी व्याख्या उद्भावित की है।
सन् 1972 के नवम्बर महीने में पूज्यपाद मुनीश्वर विद्यानन्द स्वामी ने इन्दौर के उत्कृष्ट-विचार मासिक तीर्थंकर' के सम्पादक और मेरे अभिन्न आत्पीय डॉ, नेमीचन्द जैन को आदेश दिया कि वे 'तीर्थंकर' में हर महीने मुझसे एक जैन पुराकथा लिखवाएँ। इसी से ये कहानियाँ अपने आविर्भाव के लिए मूलतः मुनिश्नी की प्रेरणा और नेमी भाई के सतत स्नेहानुरोध की ऋणी हैं। नेपी के बिना इन कहानियों के अस्तित्व की कल्पना सम्भव नहीं। साधुमना अनुज प्रेमचन्द जैन कोने के अदृश्य दीपक की तरह इन्हें अपने स्नेह से आलोकित किये हैं। लक्ष्मण की प्रीति का मूल्य कौन आँक सका है ? ___'मुक्तिदूत' जिनके वात्सल्य का जाया है, उन्हीं भारतीय ज्ञानपीठ की अध्यक्षा श्रीमती रमारानी जैन ने, इन कथाओं को बहुत प्यार से गोद में लेकर यह ग्रन्थाकार दे दिया। पिण्डदातृ माँ का ऋण कब कौन चुका सका
इन कहानियों के लेखनकाल में साहू-जैन लिमिटेड, दिल्ली के बिजिनेस-डाइरेक्टर बाबू नेमिचन्द्र जैन से जो प्रोत्साहन, कद्रदानी और नैतिक सम्बल मुझे मिलता रहा, उसे मैं कभी भूल नहीं सकूँगा। ___ मेरे चिरकाल के अनन्य हितैषी और अभिन्न अग्रज भाई साहद श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन तो मंगल-कवच की तरह पिछले सत्ताईस बरस से मुझे थामे खड़े है। मेरे लिए अकेले उन्होंने चुपचाप जितना किया है, वह मेरी जीवन-कथा का बहुत मार्मिक अध्याय है।
मेरे अल्ट्रा-मॉडर्न कलाकार बेटे डॉ. ज्योतीन्द्र जैन और पवनकुमार जैन ने अपनी तीखी आलोचना की कसौटी पर. इन कहानियों को स्वीकारा और एक उपलब्धि के रूप में सराहा, तो मैं आश्वस्त हुआ कि ज्योतीन के सद्यःप्रवातित यूरोप की 'टु-डेट' सृजन-चेतना के साथ शायद ये कृतियाँ किसी कदर संगत हो सकी हैं।
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