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वेष के सारे उपकरण प्रदान किये । तत्काल गंगा-जट पर पहुँचकर समन्तभद्र ने अपनी आचूड़ देह पर भस्म-लेपन क्रिया । ललाट पर भव्य त्रिपुण्ड्र तिलक और भ्रूमध्य में कुंकुम-टीका धारण किया। गले में रुद्राक्ष माला, बाहुओं और कलाइयों पर रुद्राक्ष के क्लय, और सुवर्णिम काषाय बेष में वे सुसज्जित हो लिये । एक हाध में चमचमाता हुआ प्रकाण्ड त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमण्डलु धारण किया। सर्वदाहक भस्मक व्याधि से पीड़ित होते हुए भी इस 'जितानंग और जितक्रोध' कुमार-योगी की देहप्रभा जरा भी मन्द न हो सकी थी। सो हिमोज्ज्वल देड, और भव्य तेजस्वी मुख-मण्डल पर यह शैव शृंगार धारण किये, शाम्भवी मुद्रा के साथ, वे साक्षात् महेश्वर की तरह वाराणसी के राजमार्गों पर विचरते दिखाई पड़े। लोग मुग्ध, चकित
और श्रद्धा-विगलित होकर उनके चरणों में साष्टांग प्रणिपात करने लगे। 'कल्याणमस्तु' कहकर बीतराग भाव से भुवनमोहन भोलानाथ आगे बढ़ जाते।
...उस सन्ध्या में विश्वनाथ मन्दिर के तोरण-गवाक्ष में आरती-वेला का प्रचण्ड दुन्दुभिन्घोष हो रहा था। भेरी, घण्टा, शंख और झाँझ-मंजीरों की समेवत ध्वनि में समस्त पुरजनों के प्राण एकतान होकर, एक धारा में प्रवाहित हो रहे थे। __ अद्भुल भाववाही और तल्लीन था, यह अगुरु-चन्दन और गन्धपुष्पों को सौरभ से व्याकुल, पवित्र वातावरण। समन्तभद्र मन्दिर की सीढ़ियों के सामने एक ऊँचे चबूतरे पर खड़े होकर, स्तब्ध भाव से, दूर गर्भगृह में उठ रही सहस्रदीप आरती का दिव्य दृश्य देखते रहे। देव-प्रकोष्ठ की उस उज्ज्वल आलोक-प्रभा में उन्हें अपने ही भीतर के सच्चिदानन्द योगीश्वर की एक अद्भुत परमहंस भावमूर्ति विग्रह धारण करती दिखाई पड़ी। उनके हृदय-कमल में से आपोआप ही पन्त्रोच्चार उठने लगा : 'शिवोऽहं... शिवोऽहं...शिवोऽहं !' वे जाने कब, एक गहन आत्मभाव की समाधि में निमग्न होकर कायोत्सर्ग में तल्लीन हो गये।
इधर आरती समाप्त होने पर पुजारी ने मन्दिर के द्वार पर शिवप्रसाद
128 : एक और नीलांजमा