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से अनुभावित हो गये । पुण्डरीक तिलक, तुलसी माला और उज्ज्वल भागवत वेष धारण कर वे मठ में निवास करने लगे। अपने अन्तस्थ जिनेश्वर के अनन्तशायी महाविष्णु स्वरूप का आराधन करते हुए. ये निर्विकल्प और निरंजन चित्त से, वैकुण्ठपति परमेश्वर के वीतराग आत्मस्थ विग्रह का स्तुतिगान करने लगे ।
..उन्हें प्रतीति हुई कि इस भ्रमण-चयां में अनेकान्त का सहस्रदल कमल उनके भीतर नाना भावों से भावित होकर अधिकाधिक विकसित हो रहा है । मत-सम्प्रदाय की भेद-ग्रन्थियाँ खुल रही हैं। हृदय एक विरोधी प्रेम के रसायन से आप्लावित हो रहा है। एक ही सच्चिदानन्द परमात्मा की यह अनैकान्तिनी लीला देखकर वे एक विलक्षण और अभूतपूर्व उदबोधन अनुभव करने लगे ।
भागवतों के यहाँ मोहनभोग मिष्टान्नों का पार नहीं । दूध, घी, खीर, मलाई की नदियाँ बहती हैं। पर वह एकान्त मधुर भगवद्-प्रसाद भी उनकी सर्वतोमुखी भूख को शान्त न कर सका। घगतलियों में फिर चंक्रमण चक्र चंचल हो उठे । एक सन्ध्या की आरती बेला में, घण्टा शंखनाद की तुमुल ध्वनियों के बीच, अपने भीतर के परम विष्णु आत्मदेवता के चरणों में उनके आँसू अविश्रान्त बहने लगे। उचाट, आरत होकर उन्होंने पुण्डरीक और तुलसी माला का वैष्णव द्वेष त्याग दिया, और अन्धकार से घिरती प्रदोष वेला में वह परिव्राजक उत्तरापथ की दिशा में आगे कूच कर गया।
... अन्तर में भगवान् आदिनाथ के कैलास श्रृंग से जैसे एक अनिवार पुकार सुनाई पड़ रही थी। उसी के उद्दाम वेश में समन्तभद्र देहभान भूलकर, अपने अज्ञात पथ पर धावमान थे। महीनों यात्रा करने के बाद, दुरतिक्रम्य विन्ध्याचल को पार करके गंगा तटवर्ती वाराणसी नगरी में आ पहुँचे । मन-ही-मन ये जान रहे थे कि वह विश्वनाथ महादेव और भगवती अन्नपूर्णा का लोक-विख्यात तीर्थ-नगर है।
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यहाँ उन्होंने एक शैव गृहपति को अपने सयांरचित शिव महिम्न स्तोत्र का गान सुनाकर वशीभूत कर लिया। प्रसन्न होकर श्रेष्ठी ने उन्हें शैव
अनेकान्त चक्रवर्ती भगवान् समन्तभद्र 127