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अपने श्रीगुरुपीठ जिस कांचीनगर में समन्तभद्र ने प्रथम बार कमण्डलु उठाकर भिक्षाटन किया था, उसे सजल आँखों से प्रणाम कर वे अपने अज्ञात संघर्षों की राह पर चल पड़े। अनेक देश नगर, ग्राम, नदी-नद, पर्वत पार करते हुए वे उत्तरावर्त के पुण्ड्र नगर में आ पहुँचे। वहाँ बौद्धों की एक विख्यात दानशाला थी। हजारों भिक्षु वहाँ प्रतिदिन आहारदान और आश्रय पाते थे |
श्रीगुरु के निर्देशानुसार, समन्तभद्र अपने आत्म-स्वरूप में अविचल रहकर, अपनी बाहरी चर्या के लिए, अपने भीतर के अन्तर- देवता से ही अचूक आदेश पाते थे। आदेश मिला कि "बौद्ध भिक्षु का वेष धारण कर । काषाय चीवर पहन, कमण्डलु उठाकर, इस बौद्ध विहार में भिक्षा ग्रहण कर, बौद्धचर्या में रहकर बौद्ध की सीमा जान !"
तत्कालीन समस्त धर्म - वाङ्मयों में पारंगत थे कुमार-योगी समन्तभद्र । शिक्षुओं के बीच धाराप्रवाह बौद्धागमों को उच्चरित करते हुए, वे उस दानशाला के आहार से अपनी अन्तहीन बुभुक्षा शान्त करने का प्रयत्न करने लगे। पर इस भोजन के स्वाद में अपनी उद्दिष्ट तृप्ति उन्हें नहीं मिली। जाने क्यों भावहीन, रसहीन लगा उन्हें यह एकान्त क्षणिकवादी, दुःखवादी बौद्ध भोजन । उनकी चेतना उससे भावित और रसाप्लुत न हो सकी। नहीं... नहीं, उनकी ब्रह्माण्ड-अभीप्सुक क्षुधा इस एकांगी आहार से तृप्त न हो सकेगी ।...
...सो एक दिन फिर निकल पड़ा अवधूत, बौद्ध वेष त्यागकर, अपनी क्षुधा शान्ति के पथ पर भूख की दुर्दम्य ज्वाला में जलते, असह्य यातनाएँ झेलते, वह मालव-जनपद के दशपुर नगर में जा पहुँचा। वहाँ शिवना नदी के तड़ पर उसने भागवत वैष्णवों का एक विशाल मठ देखा । भागवत सम्प्रदाय के साधुओं को वहाँ वैष्णव भक्तजन हर दिन उत्तम मिष्टान्न भोजन प्रदान करते थे। सर्वतोभावी समन्तभद्र सहज ही वैष्णव भक्ति भाव
126 : एक और नीलांजना