________________
काव्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डु-पिण्डः
पुण्ड्रेण्ड्रे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरं मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूयं शशधरधवलः पाण्डुराङ्गस्तपस्वी
राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी || पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता
पश्चान्मालन-सिन्धुक्क्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे | प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभरं विद्योत्कटे संकटं
वादार्थी विचराम्यहं नरपते ! शार्दूलविक्रीडितम् ॥
- "मैं आचार्य हूँ। मैं कवि हूँ। मैं बादियों का सम्राट् हूँ। मैं पण्डित हूँ । मैं देवज्ञ हूँ। मैं भिष महावैध हूँ। मैं मान्त्रिक और तान्त्रिक हूँ। मैं राजाओं की समुद्र - वलयित पृथ्वी को मंखला कड़ियों का मिलन - तीर्थ हूं। मैं आज्ञासिद्ध हूँ मैं आदेश दूँ, वह सिद्ध होता है। अरे मैं सिद्ध-सारस्वत हूँ !"
:
"कांची नगरी में मैं दिगम्बर अवधूत बनकर विचरा तब मेरा शरीर मल से मलिन था। मैंने लाम्बुश नगर में अपनी पाण्डुर देह पर भस्म धारण
1
की पुण्ड्र नगरी में मैंने बौद्ध भिक्षुक का वेष धारण किया। दशपुर नगर में मिष्टान्न भोजी परित्राजक होकर रहा। वाराणसी में आकर मैंने चन्द्रमा के समान धवल कान्तिमान् शैव तपस्वी का रूप धारण किया। हे राजन्, मैं निर्ग्रन्थ जैन मुनि हूँ। मैं मस्तक को दाँव पर लगाकर चुनौती देता हूँ कि जिसमें शक्ति हो, वह मेरे समक्ष आकर सत्य निर्णय के लिए शास्त्रार्थ करे ।..."
"... मैंने पहले पाटलिपुत्र नगर में वाद-भेरी का ताड़न किया। फिर मालव, सिन्धु, बंगदेश, कांची और विदिशा में बाद की दुन्दुभी बजायी । फिर मैं शूरवीरों और उत्कट विद्यासूरियों से मण्डित करहाटक देश में गया । हे नरपति में सत्य के निर्णयार्थ बाद करने के लिए शार्दूल सिंह की तरह सर्वत्र विचारता हूँ ।" ...
... यह किसका सिंहनाद है? कौन है यह परम सत्य का दुर्दान्त जिज्ञासु, निर्णायक ?....
120 एक और नीलांजना