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अनादिकालीन सर्वज्ञता को उन्होंने मनुष्य के बुद्धि-मानसिक ज्ञान हा विषय बनाया। उस दिन पृथ्वी पर पहली बार मानवीय भाषा में वस्तु-सत्य के निणायक समीचीन न्याय-शास्त्र (लॉजिक) का अवतरण हुआ 1 जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर, प्रमेय (पदार्थ) रूपी कमल को सहसां पंखुरियों में खिला देने के लिए विश्व के दिङ्मण्डल में ज्ञान के मार्तण्ड की तरह उद्भासित हुए। 'न्यायावतार' और 'सन्मति-तक' जैसे अप्रतिम न्याय ग्रन्थ रचकर उन्होंने विशुद्ध तर्क की खरधार तलवार पर वस्तु-सत्य को परखा और प्रमाणित किया।
उस काल की समस्त भारतीय मनीषा तर्कशुद्ध बौद्धिक ज्ञान के इस प्रचण्ट सूर्योदय से सक्रिय हो उठी थी। नागार्जुन, वसुबन्धु, असग और दिङ्नाग-जैसे दुर्दान्त पौ. सानिकों , T! की भूमि बोधि को तर्क की सान पर तराश कर चमकाया। वैदिक परम्परा में 'न्यायवार्तिक'-कार उद्योतकर और 'मीमांसा-श्लोक-वार्तिक'-कार कुमारिल भट्ट ने उपनिषद् के ब्रह्म को हथेली पर रखे औंबले की तरह तद्गत ज्ञान का विषय बनाया। समस्त भारतीय प्रज्ञा अन्तश्चैतन्य के अनुभूति-राज्य को, बहिर्मुख वस्तु-राज्य में परखने को बेचैन हो उठी। अन्तःसाक्षात्कारी आत्म-दर्शन, बहिर्मुख बौद्धिक तत्त्वज्ञान में व्यवस्थित होने को मजबूर हुआ। सत्य और तथ्य के, अनुभूति और आचार के समन्वय की अपूर्व दार्शनिक भूमिका उस काल के भारतीय दार्शनिकों ने रची। मानव-इतिहास में यह आत्मज्ञान के वस्तु-विज्ञान होने की दिशा में प्रथम प्रस्थान था।
...उस युग के भारतीय आकाश में एक उद्दण्ड आवाज का गर्जन सुनाई पड़ रहा था। यह आत्म-परिचय की तेजादृप्त आर्ष याणी थी।
आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं
__ दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम्। राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायां,
आज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ||
अनकान्त चक्रवती : भगवान् समन्तभद्र : १५