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अनेकान्त चक्रवर्ती : भगवान् समन्तभद्र आख्यान कुमार-योगी समन्तभद्र का
विक्रम की दूसरे-तीसरी शताब्दी का भारतवर्प आँखों के सामने आ खड़ा हुआ है। यह वह युग था, जब आत्म-प्रबुद्ध भारतीय ऋषियों की योधि को बुद्धि के तर्क ने ललकारा था । जब केवलज्ञान, ब्रह्म-साक्षात्कार और बोधिसत्त्व को तर्क के शाण-पट्ट पर चढ़कर, मनुष्य की युक्ति-संगत भाषा में परिभाषित होने को बाध्य होना पड़ा था। जब व्यक्ति की अन्तर्मुख आत्मानुभूति और विश्वानुभूति, जागृत मानव-समुदाय के मन और बुद्धि का विषय बनने के लिए, अपने एकान्त आत्म-लक्ष्यी ब्रह्म-शिखर से उतरकर, मानब और उसकी भोग्य वस्तु की वास्तविक भाषा में अपना रहस्य खोलने को लाचार हुई थी। जब परोक्ष तत्त्व को, मनुष्य के 'अभी
और यहाँ' जीवन का सत्त्व होने को विवश कर दिया गया था। जब एकान्त अन्तर्मुख आत्मानुभूति को जीवन के प्रतिपल के आचार-व्यबाहर, और झट मानय-सम्बन्धों को आधार देने के लिए झंझोड़ा गया था। जब भीतर के केवलज्ञान-सूर्य को ठोस पदार्थ में प्रकाशित देखने के लिए मनुष्य की समस्त चेतना उद्विग्न हो उठी धी। ___तब दक्षिणावर्त के एक ब्राह्मण-पुत्र सिद्धसेन दिवाकर ने, कन्या-कुमारी की समुद्र-शोभित चट्टान पर खड़े होकर, हिमवान की ऊचालोकित चूड़ाओं को मनुष्य की अनिर्वार बौद्धिक जिज्ञासा का समाधान करने के लिए, अपने तर्क के तूणीर पर प्रमाणित होने को विवश कर दिया था। जिनेश्वरों की 118 : एक और नीलांजना