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महाशक्ति मुझे तुम तक लायी, वही मुझे अज्ञातों के मण्डलों में खींच रही है। अखण्ड मण्डलाकार, अनन्त सिद्ध-चक्र मुझे पुकार रहे हैं। त्रिकालवी सृष्टियाँ मुझे पुकार रही हैं...'माँ !' इस पुकार की अवहेला, तुम्हारी अवहेल्ला होगी : मेरे परम पुरुष का अपमान होगा वह ।...मुझे सुनो मेरे भीतर, मुझे समझो फेरे भीतर, और आज्ञा दो...!"
''मैंना, तुम्हारे बिना चक्रवर्ती का वैभव, और तीन लोक का रमणीत्व भी श्रीपाल के लिए धूल-माटी है। तुम जहाँ नहीं वहाँ मैं नहीं, यह जान लो।..."
...तो यथासमय वहीं आ जाओगे, जहाँ मैं जा रही हूँ। वहीं होगे सदा जहाँ मैं शाश्वत हूँ। ठीक पुहूर्त आने पर तुम्हें पुकारूँगी 1 तब चले आना : मैं सदा तुम्हारे लिए, सर्वत्र प्रतीक्षा के नयन बनकर रहूँगी। निखिल चराचर इसकी साक्षी देगा।...कभी-कभी एकाकी होकर, दिगन्त व्यापी लोक को निहार, और मुझे याद कर-।।.साग २ रानीलर डे उपनिषत् पाओगे...!"
श्रीपाल अपनी अपार विजय-सम्पदा से मण्डित राजमहल के तोरणद्वार में स्तम्भित, प्रश्नायित खड़े रह गये।
मैनासुन्दरी का अंग-अंग सहज फलभार-नम्र कल्पवृक्ष-सा नम्रीभूत था। अलग से झुकना आज उसे अनावश्यक लगा : सो सुमेरु सी निश्चल, उन्नीत यह खड़ी रही। आज झुके कामकुमार कोटिभर श्रीपाल । परम पुरुष का माधा, सती के वक्षदेश पर बरबस ही ढलक पड़ा। निःशब्द मैना ने वह माया सँध लिया। उन समुद्र-जची अलकों को अतिशय मार्दव से सहला दिया। ...और उस सूर्यायित ललाट पर एक चुम्बन का तिलक अंकित कर दिया। ___...और एकाएक श्रीपाल ने पाया, कि उनका माथा अधर में दलका रह गया है। कोई बक्षदेश वहाँ नहीं है 1...बड़ो भोर को कोहरिल चाँदनी में, एक श्वेत आकृति दूर-दूर चली जा रही थी। देखते-देखते, वह दूसन्तों में कहीं, उदय की द्वाभा हो रही।...
{9 जुलाई, 1973
रूपान्तर की द्वाभा : 117