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लेकर श्रीपाल के स्वागत समारोह में आ उपस्थित हुए। ___ "तात, एक दिन तुम्हारी मैना ने तुमसे विदा लेते हुए कहा था कि उसका नियोगी चदि कोढ़ी होकर भी आएगा तो उसे कामकुमार हो जाना पड़ेगा। तुम्हारी बेटी ने तुम्हारी आन रख ली। मैंने तुम्हारे वीर्य को लजाया नहीं, मैं कृतार्थ हुई। आशीर्वाद दो कि अपने परम-स्वातन्त्र्य की इस यात्रा के चरम गन्तव्य तक पहुँच सकूँ।"
"बेटी, मेरी लज्जा और अनुताप का अन्त नहीं। मेरे कुल में, मेरे रक्त से जिनेश्वरी जन्मी हो तुम । मेरा ही राज्य क्या, सारे आर्यावर्त की राज्यश्री तम्हारे चरणों की धाले होने योग्य नहीं।"
मैनासुन्दरी पिता के चरणों में विनत हो गयी। आँचल से उनकी पदरज पोंछकर, उमड़ती आँखों से अपने भवन में लौट आधी।
"स्वामो, मैं परिपूरित हुई तुम्हारे भीतर । मैं आत्मजयी हुई तुम्हारे भीतर। सो सर्यजयी हुई। चिरकाल इस स्वार्जित राज्य-लक्ष्मी और सहस्रों रानियों का सख-भोग करो।...और मैना की अपनी राह जाने की आज्ञा दो...।'
"क्या कह रही हो...तम ? यह कैसा अनभ्र वनपात, मैना ? यह राज्य-श्री, ये रानियाँ तो तुम्हारी दासी होकर आयी हैं। मात्र नियोग पूरा हुआ।...इनमें मेरा सुख-भोग नहीं। इन्हें तुम लायी हो। मैं नहीं...नहीं... नहीं...!" ____ "इन सबमें मैं एक ही अनेक हुई हूँ, देवता। इन सबमें से मुझे निर्वासित क्यों करते हो ? यह संकोच क्यों, स्पष्टीकरण क्यों ? शेष में तो केवल तुम्ही हो, एकमेव : केवल मैं ही हूँ, एकमेव । फिर यह द्वैत क्यों आया तुम्हारे मन में...?"
"तो फिर तुम क्यों जा रही, कहाँ जा रही हो...हम सबको छोड़कर "
"सो तो मैं स्वयं भी नहीं जानती ! पुकार आयी है, और जाना होगा। छोड़कर नहीं जा रही, तुम सबके साथ तदाकार होकर जा रही हूँ।...जो
116 : एक और नीलांजना