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तुम्हारी स्वाधीन सत्ता है। देहाधीन जब तक हो, देह की उपाधियों से निस्तार नहीं !"
भन्ते, क्या इस व्याधि का कोई प्रतिकार नहीं ? कब हमारे राजा का यह कष्ट कटेगा, और कब हम इस सकट से उबर सफेो : मा देशन करायें, प्रभु !" ___ “हे भन्यो, अपने ही अर्जित प्रारश्च को भोगे छुटकारा है। व्याधि का प्रतिकार भी, भीतर के निरुपाधिक आत्म-स्वरूप में रहने से ही सम्भव है। बाहरी निमित्त-उपचार भी, उस भीतरी सत्ता का ही, बहिर्गत परिणाम मात्र है। इस कष्ट की अवधि जानता हूँ, पर कहूँगा नहीं। क्योंकि मेरा यह भविष्य-कथन तुम्हें पराधीन बनाये रखेगा। स्वाधीन आत्म-सत्ता में स्थिर होकर, अपने ही बाँधे कर्मों की इस लीला के साक्षी हो रहो। किसी भी कष्ट का, इससे बड़ा कोई प्रतिकार नहीं...।"
प्रजाजन उदास, निरुत्तर, खामोश हो गये । महाराज श्रीपाल आदि से अन्त तक मौन ही रहे। श्रीगुरु की वाणी सुनकर, सहसा उनके भीतर बोध भास्वर हो उठा। आश्वस्त भाय से श्रोगुरु की पाद-वन्दना कर वे महलों में लौट आये। प्रजा भी आक्रन्द करती हुई, अनाथ भाव से नगर को लौट पड़ी। ____ ...अगले ही दिन महाराज श्रीपाल ने अपनी विधवा राजमाता कुन्दप्रभा देवी से, अपने सुभटों सहित वनवास-प्रयाण की आज्ञा चाही : ___"माँ, हमें अब यहाँ से चले जाना चाहिए। हमारी लक्ष-लक्ष प्रजा, हमारी दुःसह देह-दुर्गन्ध से पीड़ित है। सो राजा होकर, अब मेरा यहाँ रहना महापातक होगा। अपने बाँधे वेदनीय कर्मों की यातना को अपने एकान्त में अकेला ही भोगना चाहता हूँ। मेरा दुर्दैव औरों के दुःख का कारण क्यों बने।..." ___महारानी ने मोहवश बहुत आक्रन्द-बिलाप किया। पुत्र को रोकने के अनेक प्रयास किये । पर कोटिभट श्रीपाल, निर्मम और निश्चल हो रहे। अपने काका वीरदमन को उन्होंने राज्य-भार सौंप दिया। और माँ की
रूपान्तर की डाभा : 105