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चरण-धूलि लेकर, चे निमिष मात्र में अपने सात सौ सुभटों के साथ, निर्वासन के मार्ग पर निकल पड़े।
कई-कई दिन-रात पद-यात्रा करते हुए, श्रीपाल अपने राज्य की सीमा अतिक्रमण करके निकला नदी के घर पर गुण, सम्वोर अरण्य में निवास करने लगे, जिसे 'बृहदारण्य' कहा जाता था। पाश्ववर्ती गिरिक-कन्दराएँ उनका आवास हो गयीं। जंगली फलों के आहार और निरंजना के जलो पर वे निर्वाह करने लगे। बाहर के सारे चिकित्सा उपचार उन्होंने त्याग दिये। अविचल तितिक्षापूर्वक वे अपनी व्याधिजन्य वेदना को धीर भाव से सहने लगे। अपने में आत्मस्थ हो, अपने बहते व्रणों और गलते अंगों को समक्ष रखकर, वे एकाग्न भाव से उनका साक्षात्कार करने लगे। और विचित्र थे ये सात सौ सुभट भी, जो अपने राजा की स्थितप्रज्ञ चेतना के साथ एकतान हो रहे। अपने-अपने एकान्त में, वे अपने कष्टों के तप में अपने-आपको तपाने लगे।
...एक पिछली रात महासज श्रीपाल, देह का भान भूलकर, गहन कार्यात्सर्ग ध्यान में तल्लीन थे। तभी उन्हें भीतर दिखाई पड़ा : कि उनके कन्दरा-द्वार पर कोई मुकुट-बद्ध राजपुरुष खड़ा है। अपने दोनों हाथों में एक कन्या-रत्न उठाये वह गुहा-द्वार पर प्रतीक्षमान है। श्रीपाल को एक अचूक समाधान और आनन्द की अनुभूति हुई । ध्यान-निवृत्त होने पर उन्हें कुछ देर ऐसा लगता रहा, जैसे उनके सारे व्रण एकदम उपशान्त हो गये हैं : उनके अंग-अंग एक अपूर्व आभा में झलमला रहे हैं। उल्लसित भाव से 'अरिहन्त...अरिहन्त...' उच्चारते हुए वे निर्विकल्प चित्त से अपनी नित्य की दिनचर्या में व्यस्त हो गये।
अवन्तिराज पहुपाल, अपने कुछ मन्त्रियों को साथ लेकर राजकुमारी पैनासुन्दरी के लिए वर की खोज में निकल पड़े। राजपिता के हृदय को अपनी ही
106 : एक और नीलांजना