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तजि जो गधे पिय मोहे अनाहक, यह दुख कैसैं भरिहौं री ॥ टेक ॥ मोसौं मोह रंच नहिं कीनों, मैं जा पाँयनि परिहौं री ॥ तजि ॥ १ ॥ और ठौर मोहि दोष लगेगो, पीतमको संग करिहौं री ॥ तजि. ॥ २ ॥ 'द्यानत' कृपा करें स्वामी जब, तब भवसागर तरहौं री ॥ तजि ॥ ३ ॥
हे सखी! मेरे प्रियतम ने अकारण ही मुझे त्याग दिया, छोड़ दिया अर्थात् मुझको छोड़कर चले गए। मैं इस दुःख को कैसे भोगूँ? कैसे सहन करूँ? उन्होंने मुझसे तनिक भी राग मोह नहीं किया। मैं तो जाकर उनके चरणों में भी पड़ गई।
उनकी इस राह को छोड़कर अन्यत्र कहीं जाने पर मुझे दोष लगेगा। मैं तो अपने प्रियतम के ही साथ रहूँगी ।
द्यानतराय कहते हैं कि मेरे स्वामी जब मुझ पर कृपा करेंगे तब मैं भी इस भवसागर को पार कर सकूँगी ।
अनाहक अकारण, व्यर्थ में।
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द्यानत भजन सौरभ