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तीर्थंकर के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करते हुए कवि कहते हैं हे जिनवर ! तू ही मेरा सच्चा स्वामी है ( १८६, १८७)। मैं आपका दास हूँ ( १११), फिर मैं दु:ख क्यों पाऊँ (१९९) ! मैं तो तन मन से आपका सेवक हूँ (२२२. १७९). अब आप ही हमें पार लगाइये (१५८, १९१, १९६), हमने आपकी ही शरण ली है (२०२), आप ही हमारा न्याय कीजिए ( २२१), आप ही हमें दु:खों से छुटकारी दिलवाये १२२० । हमने आपको शरण के बिना बहुत दुःख पाये हैं (२०१)। हे जिनेन्द्र ! तीनों लोक में आपका नाम है, आप दोनों पर दया करनेवाले कहे जाते हैं फिर मुझ पर दया क्यों नहीं करते (१६९. १८५. १८९) ? आपने विपत्ति में सबकी सहायता की है फिर मेरी बार ही क्यों देर कर रहे हैं (१९५) ? हे देव ! मैं और आप स्वरूपतः समान हैं किन्तु कर्मों के कारण आपमें
और मुझमें भेद दिखाई पड़ता है (१६७)। आप इस कर्मरूपी रोग को दूर करने के लिए कुशल वैद्य हैं ( १८९) । ____ मैं नित्य प्रात: उठकर आपकी मूरत के दर्शन करता हूँ ( २११), आपका दर्शन ही मन को भानेवाला है (१९०) । आपकी मूरत की शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता (१७८)। हे प्रभु ! आपको भक्ति के बिना यह जीवन धिक्कार हैं ( १८३) (१८८)। जिनवाणी/जिनेन्द्र की वाणी
जब भगवान की दिव्यध्वनि हुई तब सर्वत्र आनन्द का वातावरण छा गया (२८६ ) । भगवान महावीर की वाणी से गौतम जैसे अधिमानी का भ्रम टूट गया
और उसका मान गलित हो गया, उन्हें भी जिनवाणी पर/जिनमत पर सच्ची श्रद्धा हो गई (२९०) । हे प्राणी ! तू जिनवाणी को क्यों नहीं समझता ! वह केवलज्ञानी के द्वारा अपने अनुभव के आधार पर कहीं हुई वाणी है ( २६८) । हे ज्ञानी ! तु जिनवाणी को समझ (२८७, २८९) । यह जिनवाणी जड़ता का नाश करनेवाली है, ज्ञान का प्रकाश करनेवाली है (२८८), जग से तारनेवाली है । इस पंचमकाल में जब देव और सत्गुरु दुर्लभ हैं तब यह जिनवाणी/ये ग्रन्थ ही उपकारक हैं ( २८४) । ग्रन्थ दीपक के समान मार्गदर्शक हैं (७४) । इसलिए हे प्राणी ! आगम को सुन और मनुष्य भव का उपयोग कर (२६४) ।
समवशरण में अर्हत विराजित हैं और उनकी वाणी द्वारा ज्ञान की वर्षा हो रही है (३४४)।
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