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________________ गुरु साधु - गुरु के माध्यम से ही हमें तीर्थंकर की वाणी का मार्ग समझ में आता है अर्थात् गुरु - गणधर ही अध्यात्मरस से भरपूर जिनवाणी का मर्म समझाते हैं, इसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कन्त्रि कहते हैं हे गौतम गणधर ! आपने ही हमें भगवान की वाणी सुनाई, हम आपके कृतज्ञ हैं (२८५) । गुरु हमें ज्ञान देता है अत: गुरु के समान दाता अन्य कोई नहीं है (२७८ ) । गुरु दीपक के समान ( ज्ञान का) प्रकाश फैलानेवाला है (२७८) । हमें गुरु के माध्यम से ही चेतन का ज्ञाता- द्रष्टा रूप ज्ञात होता है (१२५), इसलिए कवि कहते हैं कि हे गुरु ! हमें आपकी बातें बड़ी अच्छी लगती हैं क्योंकि संसार में केवल वह ही कल्याणकारी हैं (२८३)। ऐसे कल्याणकारी साधु धन्य हैं जो वन में रहते हैं, शत्रु व मित्र के प्रति समान भाव रखते हैं (२७९) । वे बारह व्रतों का पालन करते हैं ( २८०) । जो ध्यान में मग्न हैं वे साधु धन्य हैं ( २८१ ले परीषहों (. शारीरिक कष्टों को शान्तभाव ..... : से सहन करते हैं (२८१) । ज्ञान-ज्ञाता कवि ज्ञान का महत्व बताते हुए कहते हैं - ज्ञान के बिना किया गया जप-तप, दान-शील सब व्यर्थ हैं (१७) । ज्ञान का सरोवर वहीं पनपता है जहाँ क्षमारूपी भूमि होती है और समतारूपी जल होता है (१६२)। ज्ञाता वही है जो निज को निज और पर को पर मानता है (१५२) । बही ज्ञानरूपी सुधा का पान करता है जो जीवन के प्रति तटस्थ दृष्टिकोण रखता है (१५१)। सच्चा ज्ञाता वहीं है जिसने अपनी आत्मा की पूजा की है, उसका सम्मान किया हैं (१६५) । ज्ञानी विचार करता है कि ज्ञान और ज्ञेय दोनों पृथक्-पृथक् हैं (१६३), अत: वह धन-वैभव का भोग भोगते हुए भी उसमें लीन नहीं होता (१६४) । वह विचारता है कि आत्मा तो अशरीरी है. स्त्री-पुरुष तो काया के भेद हैं (१६५)। द्रव्य के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान ही सुखदायक है (११४) । संसार में वही ज्ञानी है जिसके राग द्वेष आदि नहीं हैं (१०९) । जो पुण्योदय के समय राग नहीं करता और पापोदय के समय दु:खी नहीं होता (१३०)। कोई समझता है कि ज्ञान का पंथ बहुत कठिन है (१४७) । कवि उसे समझाते हुए कहते हैं - अरे ! ज्ञान का पंथ तो बहुत सरल है, बस आत्मा का अनुभव करो (१४८),समझ न आने से ही तुम्हें ज्ञान का पंथ कठिन लगता है ( २५७), समझ आने पर ज्ञान का मार्ग सरल लगता है क्योंकि इसे पाने के लिए न धन की आवश्यकता [ vili |
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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