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________________ (८) देखो नाभिनंदन जगवंदन मदन भंजन गुन निरंजन, राजको समाज साज, वन विचरत ॥ देखो.॥ इन्द्रिनिसौ नेह तोरि, सकल कषाय छोरि, आतमसौ प्रीत जोरि, धीरज धरत ॥ देखो.॥१॥ राग दोष मोषकर, मोष भाव पोषकर, पोष विर्षे सोष करि, करम हरत॥ देखो.॥२॥ 'द्यानत' मेरू समान, थिर तन मन ध्यान, इन्द्र धरनिंद्र आनि, पाँइन परत ॥ देखो. ॥३॥ हे भव्य जीवो ! देखो! नाभिराज्य के जुत्र ऋामदेव हो जाता हैं, ना के द्वारा पूजनीय हैं, कामदेव का नाश करने वाले हैं, सब कालिमा रहित हैं और गुणों की खान हैं, उन्होंने राज समाज को सँभला दिया है और स्वयं वन में विचरण कर रहे हैं। वे इन्द्रिय-विषयों से विरक्त होकर, सब कषायों को छोड़कर अपनी आत्मा से प्रीत जोड़ते हुए, लगाते हुए, धैर्य धारण किए हुए हैं। परमधीर हैं। राग-द्वेष का नाशकर, मोक्षप्राप्ति की भावनासहित, विषयपोषण को सोखकर-सुखाकर, कर्म निर्जरा कर रहे हैं। द्यानतराय कहते हैं कि वे मेरु के समान अचल तन हैं और मन से ध्यानमग्न हैं। इन्द्र व धरणेन्द्र आकर उनके चरणों में अपना शीश झुकाते हैं, चरणों में नमते हैं। द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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