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( ३०३)
१ ॥
वे साधौं जन गाईं, कर करुना सुखदाई ॥ टेक ॥ निरधन रोगी प्रान देत नहिं लहि तिहुँ जगठकुराई । वे. ॥ क्रोड़ रास कन मेरु हेम दे, इक जीवध अधिकाई ॥ वे. ॥ २ ॥ 'द्यानत' तीन लोक दुख पावक, मेघझरी बतलाई । वे. ॥ ३ ॥
सब साधुगण कहते हैं कि करुणा करने से सुख की प्राप्ति होती है अर्थात् करुणा करो, यह ही सुख देनेवाली है।
जो जन रोगी हों, गरीब हों, उनको प्राण नहीं दिये जा सकते, किन्तु उन पर करुणा तो की जा सकती है। जब उन पर करुणा की जाती है तो करुणा पाकर वे मानो जगत के स्वामीपद को प्राप्त कर लेते हैं
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किसी एक के जीवन की वृद्धि अर्थात् कष्ट का निवारण कर साता पहुँचाना, करोड़ों की राशि के समान, मेरु के समान सुवर्ण की राशि के दान से भी बढ़कर हैं अर्थात् करुणा का एक कण भी इनसे बढ़कर है।
द्यानतराय कहते हैं कि तीन लोक में दुखरूपी अग्नि के शमन के लिए इसे ही मेझरी के समान शीतलतादायक बताया गया है।
द्यानत भजन सौरभ
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