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________________ (चक्षु इन्द्रिय) पतंगा लुब्ध होता है और संगीत के नाद को सुनकर ( श्रवण इन्द्रिय) मृग अपनी जान दे देता है, वह अपनी प्राणरक्षा को भी भूल जाता है और शिकारी का भाजन हो जाता है। इन एक-एक इन्द्रिय के ये अलग-अलग दुःख हैं । इन एक-एक इन्द्रिय के विषयों के लोभ के कारण इन प्राणियों के प्राण चले जाते हैं और तू तो पांचों इन्द्रियों में रमण कर रहा है ! अरे भाई! ये तो बता कि इन इन्द्रियों का ज्ञान तुझे किसने सिखाया? तेरे मन ने यह सब कुछ कैसे जान लिया? इन इन्द्रिय विषयों में जो लोभ बढ़ा, वह लोभ कुगति का भाई है। ये सब तुझे कुगति में ले जानेवाले व बहुत दु:ख के देनेवाले हैं। हे बुद्धिमान! तू इन विषयों का त्याग कर देय भोगते समय सुख-लगा है लेकिन गन में प्राण हरनेवाले होते हैं । इसलिए इन्हें विषफल कहते हैं, तू इन्हें क्यों व कैसे ग्रहण करता है? जन्न तक इन्द्रिय-विषयों में रस व आनन्द आता है तब तक आत्मानुभव नहीं हो सकता, ज्ञान नहीं हो सकता । जिसने अमृत का पान नहीं किया वह तो अन्य रसों का स्वाद लेता रहता है, उन्हीं में चित्त लगाता रहता है, उसे अमृत के महत्त्व का, आनन्द का पता ही नहीं होता। ____ अब कहाँ तक कहें ! अब यह ही कार्य (करणीय) है कि चुप होकर रहो, लाख बातों की बात एक यह ही है कि विषयों में रत होने की आदत को ग्रहण मत करो। यानतराय कहते हैं कि जो विषयों की आशा छोड़ते हैं वे मुक्ति पाते हैं। सत्गुरु ने यह ही सीख दी है, जिसे बिरले ही समझ पाए हैं। धानत भजन सौरभ ३४७
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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