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________________ (२१९) राग धमाल साधो! छांडो विषय विकारी। जाते तोहि महा दुखकारी॥ टेक।। जो जैनधर्म को ध्यावै, सो आतमीक सुख पावै ॥ साधो.॥ गज फरसविर्षे दुख पाया, रस मीन गंध अलि गाया। लखि दीप शलभ हित कीना, मृग नाद सुनत जिय दीना ॥ साधो.॥१॥ ये एक एक शुखवाई, यू एंव रहा है . भाई। .. यह कौंनें, सीख बताई, तुमरे मन कैसैं आई॥ साधो.॥२॥ इनमाहिं लोभ अधिकाई, यह लोभ कुगतिको भाई। सो कुगतिमाहि दुख भारी, तू त्याग विषय मतिधारी। साधो. ॥ ३॥ ये सेवत सुखसे लागैं, फिर अन्त प्राणको त्यागें। तातें ये विषफल कहिये, तिनको कैसे कर गहिये ॥ साधो. ॥ ४॥ तबलौं विषया रस भावे, जबलौं अनुभव नहिं आवै। जिन अमृत पान ना कीना, तिन और रसन चित दीना॥ साधो.॥५॥ अब बहुत कहां लौं कहिए, कारज कहि चुप है रहिये। ये लाख बातकी एक, मत गहो विषयकी टेक॥साधो. ॥६॥ जो तजै विषयकी आसा, 'द्यानत' पावै शिववासा। यह सतगुरु सीख बताई, काहू बिरले जिय आई। साधो. ।। ७॥ हे साधो ! तुम विकारी इन्द्रिय-विषयों को छोड़ो। क्योंकि ये बहुत दुःख उपजानेवाले हैं, बहुत दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं। जो भी जैन धर्म को ध्याता है, समझता है उसे आत्मसुख की प्राप्ति होती है। हाथी स्पर्शन इन्द्रिय के कारण दु:खी होता है । मछली रसना इन्द्रिय के कारण और भँवरा सुगंध (घ्राण इन्द्रिय) के कारण दुःख पाता है। दीपक को देखकर ३४६ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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