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________________ are m ( ३०० ) राग रामकली रे जिया ! सील सदा दिढ़ राखि हिये ॥ टेक ॥ जाप जपत तप तपत विविध विधि, सील बिना धिक्कार जिये ॥ सील सहित दिन एक जीवनी, सेव करें सुर अरघ दिये। कोटि पूर्व थिति सील विहीना, नारकी दें दुख वज्र लिये ॥ १ ॥ ले व्रत भंग करत जे प्रानी, अभिमानी मदपान पिये आपद पावें विघन बढ़ावें, उर नहिं कछु लेखान किये ॥ २ ॥ ! सील समान न को हित जगमें, 'द्यानत' रतन जतनसों गहिये, अहित न मैथुन सम गिनिये । भवदुख दारिद-गन दहिये ॥ ३ ॥ हे जीव ! तू हमेशा अपने हृदय में दृढ़ता से शील को धारण कर । भाँतिभाँति के जप और तप भी शील के बिना धिक्कारने योग्य है। जो जोव शीलसहित अल्प समय भी जीता हैं उस जीव की सब सेवा करते हैं, देवता भी उसकी पूजा करते हैं, अर्ध चढ़ाते हैं। इसके विपरीत करोड़ों पूर्वी की स्थितिवाली आयु हो और वह शील रहित हो तो वह नरक पर्याय में वज्र धारण किए हुए नारकी की भाँति दारुण दुखदायी है । ३४८ जो अभिमानी मान के मद में चूर होकर व्रत भंग करता है वह आपदा पाता है, कष्ट बढ़ाता है। अपने मन में वह उसका तनिक भी लेखा-जोखा अर्थात् विचार नहीं करता । जगत में शील के समान कोई हितकारी नहीं है। मैथुन के समान दूसरा नाश करनेवाला नहीं है । द्यानतराय कहते हैं कि यह शील एक रत्न है। इसे बहुत सावधानीपूर्वक सँभालकर ग्रहण करो, जिससे भव-भव के दुख-दारिद्र का नाश हो जाए दहन हो जाए । द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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