SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२७८) गरु समान दाता नहिं कोई टिंक।" . . :: ::: भानु-प्रकाश न नाशत जाको, सो अँधियारा डार खोई ।। गुरु ।। मेघसमान सबनौ बरसै, कछु इच्छा जाके नहिं होई। नरक पशूगति आगाहिंते, सुरग मुकत सुख थापै सोई ।। गुरु.॥१॥ तीन लोक मन्दिर में जानौ, दीपकसम परकाशक-लोई। दीपतलै अँधियार भर्यो है, अन्तर बहिर विमल है जोई॥ गुरु. ॥ ३॥ तारन तरन जिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुम्ब डोबै जगतोई। 'द्यानत' निशिदिन निरमल मनमें, राखो गुरु-पद-पंकज दोई। गुरु.॥३॥ हे आत्मन् ! गुरु के समान दाता अर्थात् देनेवाला अन्य कोई नहीं है। अपने भीतर की मलीनता को, अंधकार को जिसे सूर्य का प्रकाश भी नहीं भेद सकता अर्थात् मिटा नहीं सकता, उसको वह गुरु ज्ञान के आलोक से, प्रकाश से नष्ट कर देता है, खो देता है। जैसे मेघ समानरूप से चारों तरफ बरसता है। इस प्रकार बरसने की उसकी स्वयं कोई इच्छा नहीं होती वह स्वत: ही बरसता है । वैसे ही गुरु जीवों को नरक व पशुगति की दाह से बाहर निकालकर स्वर्ग व मुक्ति के सुख में मात्र ज्ञान के द्वारा स्थापित करता है। वह गुरु तीन लोक में चैत्य (मन्दिर) के समान पूज्य है अर्थात् श्रद्धा व विश्वास का केन्द्र है। दीपक स्वयं जलकर अपने चारों ओर प्रकाश करता है किन्तु उस लौकिक दीपक के तले तो अँधियारा होता है पर गुरु तप करता है और वह अन्तर तथा बाह्य सब ओर से प्रकाशक होता है। गुरु ज्ञान के द्वारा संसार से उस पार उतारने के लिए जहाज के समान है, जबकि सारा कुटुम्ब तो संसार में डुबानेवाला है । द्यानतराय कहते हैं कि अपने मन को निर्मल कर उसमें ऐसे गुरु के चरण-कमल को सदा आसीन रखो, उसे श्रद्धापूर्वक सदैव नमन करो। ३२० द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy