SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २७७ ) राग कल्याण (सर्व लघु) कहत सुगुरु करि सुहित भविकजन ! ॥ टेक ॥ पुदगल अधरम धरम गगन जम, सब जड़ मम नहिं यह सुमरहु मन || नर पशु नरक अमर पर पद लखि दरब करम तन करम पृथक भन । तुम पद अमल अचल विकलप बिन, अजर अमर शिव अभय अखय गन ॥ १ ॥ त्रिभुवनपतिपद तुम पटतर नहिं, तुम पद अतुल न तुल रविशशिगन । वचन कहन मन गहन शकति नहिँ, सुरत गमन निज जिन गम घरनन ॥ २ ॥ इह विधि बँधत खुलत इह विधि जिय, इन विकलपमहिं, शिवपद सधत छ । निरविकलप अनुभव मनं सिधि करि, करम सघन वनदहनं दहन - कन ॥ ३ ॥ सत्गुरु भव्यजनों के हित के लिए उपदेश देते हैं, संबोधित करते हैं कि ए मेरे मन पुदल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये सब अजीव हैं, जड़ हैं। ये मेरे नहीं है क्योंकि मेरा आत्मा जड़ नहीं है, चैतन्य है, ऐसा सदैव स्मरण रखो I देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच ये चारों गतियाँ 'पर' रूप हैं, द्रव्यकर्म व नोकर्म शरीर से भिन्न यह आत्मा निर्मल, अचल, अजर, अमर, निर्विकल्प, शिव, अभय, अक्षय आदि गुणों का समूह है। आपके समान तीन लोक का नाथ अन्य कोई नहीं है। आपके तेज की समता सूर्य और चन्द्रमा के समूह भी नहीं कर सकते। आपका ध्यान आते ही निज में निज की जो परिणति होती है, उसे वचन से कहने व मन से ग्रहण करने की सामर्थ्य व शक्ति नहीं है। - संसार में इस प्रकार कर्म बंध होते हैं और इस प्रकार निर्जरा होती हैं, इस प्रकार कर्म झड़ते हैं इन विकल्पों के रहते मोक्षमार्ग की साधना नहीं होती । इसलिए निर्विकल्प होकर आत्मचिंतन करने पर ही कर्मरूपी सघन वन के कणकण को दहनकर नष्ट किया जा सकता है। 'जम काल द्रव्य । नोट: इस भजन में सर्वत्र लघु वर्णों का प्रयोग किया गया है। द्यानत भजन सौरभ ३१९
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy