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(२७९) धनि ते साधु रहत वनमाहीं। टेक। शत्रु मित्र सुख दुख सम जानें, दरसन देखत पाप पलाहीं॥ धनि ।। अट्ठाईस मूलगुण धारें, मन वच काय चपलता नाहीं। ग्रीषम शैल-शिखा हिम तटिनी, पावस वरषा अधिक सहाहीं ॥ १॥ क्रोध मान छल लोभ न जानें, राग दोष नाहीं उनपाहीं। अमल अखंडित चिद्गुणमण्डित, ब्रह्मज्ञानमें लीन रहाहीं॥२॥ तेई साधु लहैं केवलपद, आठ-काठ दह शिवपुर जाहीं। 'द्यानत' भवि तिनके गुण गावे, पार्वं शिवसुख दुःख नसाहीं॥३॥
वे साधु धन्य है जो निजने वन में, एकान्त में रहते हैं। उनके लिए शत्रुमित्र, सुख-दुख सब समान हैं । उनके, ऐसे गुरु के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं, दूर हो जाते हैं । वे मुनि २८ मूल गुणों को धारण करते हैं, पालन करते हैं। उनके मन-वचन-काय की चंचलता नहीं होती। गर्मी की तपन में वे पहाड़ की चोटी पर, सर्दी में नदी के किनारे और वर्षाऋतु में वृक्ष तले तपस्या करते हैं और सब परिषह सहन करते हैं।
वे क्रोध, मान, छल (माया) और लोभ इन चार कषायों को छोड़ चुके हैं, इससे उनके राग और द्वेष नहीं होता। वे अपने निर्मल चैतन्य स्वरूप में, अखंड आत्मस्वरूप के ज्ञान में लीन रहते हैं, मगन रहते हैं।
वे ही साधु केवलज्ञान की स्थिति को प्राप्त करते हैं । आठ प्रकार के कर्मरूपी ईंधन को जलाकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं । द्यानतराय कहते हैं कि जो भव्यजन उनके गुणों का स्मरण करते हैं वे दु:खों का नाश करके मोक्ष-सुख की प्राप्ति करते हैं।
२८ मूलगुण = ५ महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह; ५ समिति - ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण व प्रतिष्ठापना; ५ इन्द्रियरोध - स्पर्शन, रसना, घ्राण, नयन व कर्ण ७गुण - अस्नान, भूमि शयन, अदन्त धोवन, वस्त्रत्याग, केशलोंच, दिन में एक बार भोजन, खड़े. खड़े भोजन; ६ आवश्यक - समताभाव, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रपण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग।
खानत भजन सौरभ
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