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________________ (२६६) विपतिमें धर धीर, रे नर! विपतिमें धर धीर॥ टेक॥ सम्पदा ज्यों आपदा रे!, विनश जै है वीर ।। रे नर.॥१॥ धूप छाया घटत बढ़े ज्यों, त्योंहि सुख दुख पीर॥रे मन. ॥ २ ॥ दोष 'धानत' देय किसको, तोरि करम-जंजीर।रे मन.॥३॥ हे नर । विपत्ति में तू धैर्य धारण कर । यह सम्पदा परिग्रह है, आपदा है, आपत्ति है। जो इस सम्पदा को त्यागते हैं वे ही वीर होते हैं अर्थात् अपरिग्रही ही वीर होते हैं। जिस प्रकार धूप के साथ-साथ वस्तु की छाया भी कभी छोटो, कभी बड़ी होती रहती है, छाया के समान कभी सुख होते हैं, कभी दुःख होते हैं, उसी प्रकार सुख-दुःख की पीड़ा भी कभी छोटी, कभी बड़ी, कभी कम या अधिक, कभी मन्द या तीव्र होती जाती है। द्यानतराय कहते हैं कि इसमें दोष किसको दें? अरे कर्म की जंजीर को तोड़ दो, क्योंकि कर्म ही सुख-दुख का, जन्म-मरण का कारण है। धानत भजन सौरभ ३०७
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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