SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२६७) वीर री पीर कासों कहिये ।। टेक॥ ध्रौव्य अनूपम अचल मुकति गति, छांडि चहूँगति दुख क्यों सहिये। चेतन अमल शरीर मलिन जड़, तासों प्रीति कहाँ क्यों चहिये। अनुभव अनत विषय विषम फल, त्यागि सुधारस विष क्यों गहिये॥१॥ तिहुँ जगठाकर रतनत्रयनिधि, चाकर दीन भये क्यों रहिये। 'द्यानत' पीर सुलानि भु भेषज होम रोम कयौं लहिरो ॥२॥ हे वीर! तुम अपनी कष्ट-कथा किसको कहते हो? तुम्हारे दु:खों का कारण तुम स्वयं ही हो तब किससे अपनी पीड़ा कहते हो? उपमारहित, स्थिर, मोक्ष की पंचमगति को छोड़कर, चार गति के दुःखों को क्यों सहन करते हो? यह चेतन निर्मल है, मलरहित है । यह देह मलसहित है, जड़ है, तो इससे क्यों प्रीति करते हो? आत्मानुभव अमृत है; इन्द्रिय-विषय अत्यन्त दुःखदायी हैं तो तुम अमृत को छोड़कर विष को क्यों ग्रहण करते हो? तुम रत्नत्रय की सम्पदा को पाकर तीन लोक के नाथ हो सकते हो, तो दीन होकर नौकर-चाकर की भाँति क्यों रहते हो? द्यानतराय कहते हैं कि यह प्रभु नाम उत्तम औषधि है इसका अनुपान कर रोम-रोम से आनन्द की अनुभूति करो। ३०८ धानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy