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________________ (२६५) राग केदारो रे जिय! जनम लाहो लेह ।। टेक।। चरन ते जिन भवन पहुँचें, दान दें कर जेह ।। रे जिय.॥ उर साई जामैं दया है, अर. सांधरको गेह। जीभ सो जिन नाम गावै, सांचसौं करै नेह॥रे जिय.॥१॥ आंख ते जिनराज देखें, और आँखें खेह। श्रवन ते जिनवचन सुनि शुभ, तप तपै सो देह ॥रे जिय. ।। २॥ सफल तन इह भांति है है, और भांति न केह।। कै सुखी मन राम ध्यावो, कहैं सदगुरु येह॥रे जिय, ॥ ३ ।। अरे जिया! तुम इस दुर्लभ उपयोगी मनुष्य जीवन का सुरुचिपूर्वक, भक्तिपूर्वक लाभ प्राप्त करो। अपने हाथों से दान दो व स्वयं अपने पाँवों से चलकर जिन मन्दिर में पहुँचो . प्रवेश करो। वह ही हृदय सार्थक है जिसमें करुणा होती है अन्यथा तो यह मात्र रुधिर/ रक्त का घर है। जीभ से जिन-नाम का स्मरण करो और सत्य से सदा अनुराग करो। नेत्रों से जिनराज के दर्शन करने से ही उनकी सार्थकता है अन्यथा तो ये आँखें धूल के समान निरर्थक हैं। कानों से जिनराज के वचन सुनें तो ही कान सार्थक हैं और देह से शुभ तप तपें तो ही देह सार्थक हैं। इस प्रकार की क्रियाओं से ही यह देह, यह तन सार्थक है, सफल है, इस प्रकार यह जनम सफल होता है, अन्य किसी प्रकार से सफल नहीं होता । सद्गुरु उपदेश देते हैं कि प्रमुदित होकर अपने मन में, अपने इष्ट का ध्यान करो। इस प्रकार इस जन्म का लाभ प्राप्त करो। लाह - लाभ; लेह = स्वादिष्ट, नाटने योग्य; खेह - व्यर्थ, धूल। ३०६ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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