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________________ नहिं ऐसो जनम बारंबार ॥ टेक ॥ कठिन कठिन लह्यो मनुष भव विषय भजि मति हार ।। नहिं ।। पाय चिन्तामन रतन शठ, छिपत उदधिमँझार । अंध हाथ बटेर आई, तजत ताहि गँवार ॥ नहिं. ॥ १ ॥ कबहुँ नरक तिरजंच कबहूँ, कबहुँ सुरगबिहार । जगतमहिं चिरकाल भमियो, दुलभ नर अवतार ॥ नहिं ॥ २ ॥ पाय अम्रत पाँय धोवै, कहत सुगुरु पुकार । तजो विषय आय 'अनन्त', न्यों लहोत्रा नहिं ॥ ३ ॥ ( २४७ ) हे मानव! ऐसा जनम अर्थात् मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता। यह मनुष्य भव बहुत ही कठिनाई व संयोग से मिलता है। विषयों में रमकर इसको मत गवाँ, मत खो। अरे दुष्ट, तू चिंतामणि रतन को पाकर समुद्र में मत फेंक । अरे अंधे के हाथ में बटेर आ जाए, तो वह अपनी नासमझी के कारण उसे हाथ से छोड़ देता है । कभी नरक, कभी तिर्यंच और कभी स्वर्ग की पर्यायों में, विषयसुखों में रमण करता रहा। इस जगत में अनन्तकाल से इस प्रकार अनेक भवों में करता आ रहा हैं, और अब यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है। यह मनुष्यजन्मरूपी अमृत पाकर, तू उसे पाँव धोने में व्यय कर रहा है अर्थात् निकृष्ट कामों में लगाकर व्यर्थ कर रहा है, निरर्थक कर रहा है! द्यानतराय कहते हैं कि अरे भाई, तू कषाय और विषयों को छोड़। तभी तू इस संसार के पार हो सकेगा, हो जावेगा । छित क्षेपत फेंकना। २८४ - - द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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