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(२४८) निज जतन करो गुन-रतननिको, पंचेन्द्रीविषय सभी तसकर ।। टेक॥ सत्य कोट खाई करुनामय, वाग विराग छिमा भुवि भर । निज.॥१॥ जीव भूप तन नगर बसै है, तहँ कुत्तवाल धरमको कर॥निज. ॥ २॥ 'धानत' जब भंडार न जावै, तब सुख पावै साहु अमर। निज.॥३॥
हे पथिक! अपने गुणरूपी रत्नों को यत्नपूर्वक सँभालकर रखो। पाँचों इन्द्रियों के विषय इन गुणों को लूटनेवाले तस्कर हैं। ___उन गुणों को रक्षा हेतु तू स्थिति को समझकर सत्य का परकोटा बना, उसके चारों ओर करुणा की खाई और वैराग्यरूपी उपवन.. बगीचा बना, उसमें क्षमा की भूमि/आधार बना।
यह जीव राजा इस देहरूपी नगर में निवास करता है, उसकी (जीव की) रक्षा करने के लिए धर्म को कोतवाल बना।
द्यानतराय कहते हैं कि जब तू अपने गुणरूपी भंडार को सुरक्षित रख सके अर्थात् उन्हें नष्ट होने से बचा सके, तब ही अविनाशी, कभी भी नष्ट न होनेवाले सुख की अनुभूति कर सकेगा।
द्यानत भजन सौरभ
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