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________________ ( २२५ ) आरसी देखत मन आर-सी लागी ॥ टेक ॥ सेत बाल यह दूत कालको, जोवन मृग जरा बाधिनि खागी ॥। आरसी ॥ १ ॥ चक्री भरत भावना भाई, चौदह रतन नवों निधि त्यागी । आरसी ॥ २ ॥ 'द्यानत' दीच्छा लेत महूरत, केवलज्ञान कला घट जागी । आरसी ॥ ३ ॥ दर्पण को देखकर हृदय में एक आरे-सी, सुई के समान चुभन हो गई । '': दर्पण देखा तो उसमें अपने सफेद बाल दिखाई दिये, सफेद बाल काल का / मृत्यु का एक दूत है अर्थात् बीत रहे जीवन का सूचक है। और दिखाई दिया कि यौवनरूपी मृग को बुढ़ापेरूपी बाघिन खा गई। भरत चक्रवर्ती ने भावनाओं का चिन्तवन किया। नौ निधि और चौदह रत्न को त्याग दिया। द्यानतराय कहते हैं कि जिसके कारण दीक्षा लेने के मुहूर्त में ही उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई अर्थात् केवलज्ञान की व्यवस्था कला समझ में आ गई। आरसी दर्पण; आर आरी लकड़ी चोरने का दाँतेदार औज़ार । २५८ = - = - द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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