SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २०५ ) प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक ॥ श्रुति करि सुखी दुखी निंदा, तेरैं समता भाय ॥ प्रभुः ॥ जो तुम ध्यावै थिर मन लावै, सो किंचित् सुख पाय । जो नहिं ध्यावै तहे करत हा, तीन भवनको राय ॥ प्रभुः ॥ १ ॥ अंजन चोर महाअपराधी, दियो स्वर्ग पहुँचाय । कथानाथ श्रेणिक समदृष्टी, कियो नरक दुखदाय ॥ प्रभु. ।। २ ।। सेव असेव कहा चलै जियकी, जो तुम करो सु न्याय 'द्यानत' सेवक गुन गहि लीजै, दोष सबै छिटकाय । प्रभु ॥ ३ ॥ हे प्रभु! तेरी महिमा अवर्णनीय है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जो तेरी स्तुति करते हैं वे सुखी होते हैं तो कई उसके विपरीत निंदा करके दुःखी होते हैं, पर आप सदा ही समतामय रहते हैं । जो आपको ध्याता है, आपके चिंतन में अपना मन स्थिर करता है उसे कुछ सुख की अनुभूति, प्राप्ति होती है। जो आपको नहीं ध्याता है उसको भी आप तीन लोकों में राजा का पद दे देते हो । अंजन चोर महाअपराधी था, उसको आपने स्वर्ग में स्थान प्राप्त कराया। पुराणों में जिसके नाम के सहारे कथाएँ कही गई हैं उस सम्यग्दृष्टि श्रेणिक को दुःखदायी नरक में पहुँचा दिया । तो आपकी सेवा अथवा असेवा में इस जीव की कोई भूमिका नहीं है । जो आप करते हैं वह ही सही न्याय है। द्यानतराय कहते हैं कि हे प्रभु! आप इस सेवक के गुणों को ही ग्रहण करो और सब दोषों को हटा दो, उन्हें मत देखो, उनकी ओर ध्यान मत दीजिए। द्यानत भजन सौरभ २३५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy