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________________ २०%) . ... ... . . . . . . . प्रभु तेरी महिमा किहि मुख गावैं ॥ टेक॥ गरभ छमास अगाउ कनक नग सुरपति नगर बनावै ॥ प्रभु.॥ क्षीर उदधि जल मेरु सिंहासन, मल मल इन्द्र न्हुलावें। दीक्षा समय पालकी बैठो, इन्द्र कहार कहावै ॥ प्रभु.॥१॥ समोसरन रिध ज्ञान महातम, किहिविधि सरब बतावै। आपन जातकी वात कहा शिव, बात सुनैं भवि जावै॥ प्रभुः ॥ २॥ पंच कल्यानक थानक स्वामी, जे तुम मन वच ध्यावें। 'द्यानत' तिनकी कौन कथा है, हम देखें सुख पावै॥ प्रभुः ॥ ३॥ हे भगवान ! हम किस मुँह से आपकी महिमा का गुणगान करें! आपके गर्भ में आने के छह माह पूर्व ही इन्द्र के द्वारा रत्न व स्वर्ण से जड़ित नगर की रचना की जाती है। जन्म के समय इन्द्र मेरू पर्वत पर ले जाकर क्षीरसागर के जल से महा-- प्रक्षालन करता है और दीक्षा के समय इन्द्र स्वयं कहार बनकर आपको पालकी में बैठा कर ले जाता है। समवशरण की ऋद्धि अनुपम होती है। उसकी ऋद्धि और आपके ज्ञान के महात्म्य को किस विधि से बताया जाए? दिव्यध्वनि से ज्ञान का उद्घाटन होता है। केवल अपने ही चैतन्य स्वरूप की बात करके, सुन करके भव्य पुरुष मोक्ष को प्राप्त करते हैं। ___ हे स्वामी ! आपके पाँच कल्याणक होते हैं (पाँच कल्याणकारी घटनाएँ होती हैं) उनका जो मन-वचन से ध्यान-चिंतन करते हैं, यानतराय कहते हैं कि उनकी तो बात भी निराली है । हम तो उन कल्याणकों की बातों को देख सुनकर ही सुखी/आनन्दित हो जाते हैं। नग = पर्वत; महातम - महात्म्य, महिमा। २३६ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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