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________________ (१९५) मेरी वेर कहा ढील करी जी ।। टेक॥ सूलीसों सिंघासन कीनो, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी॥ मेरी वेर. ।। सीता सती अगनिमें पैठी, पावक नीर करी सगरी जी। वारिषेण खड़ग चलायो, फूलमाल कीनी सुधरी जी॥ मेरी वेर. ॥१॥ धन्या वापी पर्यो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक भरी जी। सिरीपाल सागरतें तार्यो, राजभोगकै मुकत वरी जी॥ मेरी बेर. ।। २ ।। सांप कियो फूलनकी माला, सोमापर तुम दया धरी जी। 'द्यानत' मैं कछु जाँचत नाही, कर वैराग्य दशा हमरी जी॥ मेरी बेर.॥३॥ हे प्रभु! जब मेरी बारी आई, तो क्यों ढिलाई की, देरी क्यों की? फाँसी के तख्ने को सिंहासन बनाकर आपने सेठ सुदर्शन की विपदा को दूर किया। सती सीता की अग्नि-परीक्षा के समय अग्नि-प्रवेश के अवसर पर आपने अग्नि को जलरूप परिणल कर दिया। इसी प्रकार वारिषेण पर जब तलवार का वार हुआ तो उसको सुन्दर फूलों की माला बना दिया। धनकुमार जब बावड़ी में पड़ा तब उसे बाहर निकालकर उसके घर पर अनेक प्रकार की रिद्धियाँ (ऋद्धियाँ) उत्पना कर दी। श्रीपाल को सागर से बाहर निकाला और राजदोष से मुक्त करा दिया। सोमा पर आपने कृपा की और उसे पहनाये गये साँप को फूलों की माला में परिणत कर दिया। द्यानतराय कहते हैं कि मैं आपसे कुछ भी याचना नहीं करता। बस यही भावना करता हूँ कि मैं रागरहित वैराग्य दशा को प्राप्त होऊँ। द्यानत भजन सौरभ २२५
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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