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(१८९) त्रिभुवनमें नामी, कर करुना जिनस्वामी॥ टेक ॥ चहुँगति जनम मरन किमि भाख्यो, तुम सब अंतरजामी॥ त्रिभुवन. ॥ १॥ करमरोगके वैद तुम्ही हो, करों पुकार अकामी ।। त्रिभुवन.॥२॥ 'द्यानत' पूरब पुन्य उदयतें, शरन तिहारी पामी॥ त्रिभुवन. ॥३॥
हे जिनेन्द्र । आप तीनलोक में प्रसिद्ध हैं, आप हम पर करुणा कीजिए। चारों गतियों में मैंने किस-किस प्रकार जन्म लिया और मरण किया है वह सब मैं किस प्रकार कहूँ! आप अन्तर्यामी हैं, सब जानते हैं।
आप ही कर्मरोग से छुटकारा दिलानेवाले वैद्य हैं। मैं अकामी, अन्य सब इच्छाओं/कामनाओं से रहित आपके समक्ष इस रोग से मुक्ति के लिए पुकार कर रहा हूँ, याचना कर रहा हूँ।
द्यानतराय कहते हैं - पूर्व कर्मों के अनुसार अब पुण्योदय आने पर मुझे आपकी शरण प्राप्त करने का अवसर मिला है।
द्यानत भजन सौरभ