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________________ ( ११० ) दरसन तेरा मन भाये ॥ टेक ॥ तुमकौं देखि त्रिपति नहिं सुस्पति, जैन हजार मात्रै | दरसन ॥ L 22" समोसरनमें निरखै सचिपति, जीभ सहस गुन गावै । कोड़ कामको रूप छिपत है, तेरो दरस सुहावै ॥ दरसन ॥ १ ॥ आँख लगे अंतर है तो भी, आनँद उर न समावै । ना जानों कितनों सुख हरिको, जो नहिं पलक लगावै ॥ दरसन ॥ २ ॥ पाप नासकी कौन बात है, 'द्यानत' सम्यक पावै । आसन ध्यान अनूपम स्वामी, देखें ही बन आवै ॥ दरसन. ।। ३ ।। हे प्रभु! आपका दर्शन मनभावन है, मन को भानेवाला है, मन को अच्छा लगनेवाला है। आपके दर्शनों से देवताओं का राजा इन्द्र भी तृप्त नहीं हो पाया तब जीभर के आपके दर्शन करने के लिए उसने निक्रिया से हजार नयन बनाकर दर्शन किये। समवशरण में वह इन्द्र आपके दर्शन करके आपके सहज गुणों की वचनस्तुति करता है। आपकी सुन्दरता करोड़ों कामदेव के रूप को अपने में समेटे हुए हैं। ऐसे सुन्दर दर्शन मुझे अत्यन्त प्रिय लगते हैं, अच्छे लगते हैं । २२० आपके दर्शनों के लिए अन्तर की / मन की आँखें तत्पर हैं तो भी हृदय में आनन्द नहीं समा रहा है अर्थात् उमड़कर बाहर फैल रहा है। उस इन्द्र को न जाने कितना (अवर्णनीय) सुख मिलता है जो निरन्तर / निर्निमेष / बिना पलक झपकाये आपके दर्शन करता रहता है। द्यानतराय कहते हैं आपके दर्शनों से पापों का नाश होना तो कोई बड़ी बात ही नहीं है, सम्यक्त्व की प्राप्ति भी हो जाती है। आपकी ऐसी ध्यानासीन मुद्रा की अन्य कोई उपमा नहीं है। वह छत्रि देखते ही बनती है अर्थात् उसे देखने से मन नहीं भरता, उसे सदैव देखते रहने का मन करता है । द्यानत भजन सौरभ kav
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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