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________________ ( १७२ ) चौबीसौं को वंदना हमारी ॥ टेक ॥ भवदुखाशक, सुखपरकाशक, विविनाशक मंगलकारी ॥ १ ॥ तीनलोक तिहुँकालनिमाहीं, इन सम और नहीं उपगारी ॥ २ ॥ पंच कल्यानक महिमा लखकै अद्भुत हरष लहैं नरनारी ॥ ३ ॥ 'द्यानत' इनकी कौन चलावै, बिंब देख भये सम्यकधारी ॥ ४ ॥ हम ऋषभदेव से वर्धमान तक चौबीस तीर्थकरों की वंदना करते हैं। ये भव-भ्रमण के दुःख का नाश करनेवाले हैं, सुख के प्रकाशक हैं, सब विघ्न-बाधाओं को मेटनेवाले हैं, नाश करनेवाले हैं व सदा मंगल करनेवाले हैं तीन लोक और तीनों काल में इनके समान दूसरा कोई उपकारी नहीं हैं। इनके पंचकल्याणक ध्यान के उत्कृष्ट माध्यम है, उनको देखकर, उनकी महिमा जानकर सभी नर-नारी प्रसन्नता को प्राप्त होते हैं। द्यानतराय कहते हैं कि इनकी क्या बात करें ! इनके प्रतिबिम्ब को देखकर ही प्राणी सम्यक्त्व को धारण कर लेते हैं । २०२ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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