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(१७१) कोढ़ी पुरुष कनक तन कीनो, अंधन आंखि दई सुखदाई॥ टेक॥ बहिरे शब्द वैन गूंगेको, लूले हाथ पांगुले पाई॥ कोढ़ी॥१॥ हिये-सुन्न हू किये कवीसुर, मांस खात कीने मुनिराई। कोढ़ी ॥२॥ 'द्यानत' दुख काहे नहिं मेटत, मोहि शरन तुम मन धच काई। कोढ़ी।३।।
हे प्राणी ! जिनेन्द्र के स्तवन से सब कष्ट मिट जाते हैं, दूर हो जाते हैं । उनके समरण से कोढ़ी पुरुष का कोढ़ मिट जाता है और देह सुवर्ण के समान निखर जाती है। उनके स्मरण से अंधे को सुख देनेवाली आँखें मिल जाती हैं।
उनके स्मरण से बहरा भी शब्द सुनने लगता है; गूंगा बोलने लगता है, लूला हाथ पा जाता है और पंगु (पांगला) को पैर प्राप्त हो जाते हैं। उनके स्मरण से, स्तवन से संवेदनहीन भी सहृदय श्रेष्ठ कवि बन जाता है और मांसाहारी भी मांस खाने का व्यसन छोड़कर, मांसाहार छोड़कर मुनि बन जाता है।
द्यानतराय कहते हैं कि मुझे मन, वचन और काय से आपको ही शरण है । फिर मेरे दुखों को क्यों नहीं मिटाते !
काई .. काय, शरीर।
धानत भजन सौरभ