SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १६७ ) इक अरज सुनो साहिब मेरी ॥ टेक ॥ चेतन एक बहुत जड़ घेर्यो, दई आपदा बहुतेरी ॥ इक. ॥ १ ॥ हम तुम एक दोय इन कीने, बिन कारन बेरी गेरी ।। इक ॥ २ ॥ 'द्यानत' तुम तिहुँ जगके राजा, करो जु कछू खातिर मेरी ।। इक ।। ३ ।। हे स्वामी! मेरी एक अर्ज, एक विनती सुनो। यह चेतन तो अकेला है और अनन्त पुद्गल परमाणुओं ने कर्मरूप होकर इसे चारों तरफ से घेर रखा है और अनेक प्रकार के कष्ट दिए हैं। इन्होंने आपमें और मुझमें भेद कर रखा है अर्थात् में और आप स्वरूपतः एक-समान हैं पर इन जड़ कर्मों ने ही आपमें और मुझमें भेद कर रखा हैं और बिना किसी कारण के ये बेड़ियाँ डाल रखी हैं। द्यानतराय कहते हैं कि प्रभु! आप तीन लोक के स्वामी हैं। आप मुझ पर करुणा कर मेरे उद्धार के लिए भी कुछ कीजिए । १९६ धानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy