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(१६६) अरहंत सुमर मन बावरे! ॥ टेक ।। ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लाव रे। अरहंत.॥ नरभव पाय अकारथ खोई, विषय भोग जु बढ़ाव रे। प्राण गये पछितैहै मनवा, छिन छिन छीजै आव रे।। अरहंत॥१॥ जुवती तन धन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ चाव रे। यह संसार सुपनकी माया, आंख मीचि दिखराव रे। अरहंत॥२॥ ध्याव ध्याव रे अब है दावरे, नाहीं मंगल गाव रे। 'द्यानत' बहुत कहां लौं कहिये, फेर न कछू उपाव रे।। अरहंत. ॥ ३॥
ऐ मेरे बावरे मन ! अरे मेरे नादान मन! तू अरहंत के गुणों का स्मरण कर। लाभ और सम्मान की भावना छोड़कर अरे भाई तू अपने अन्तर को/मन को प्रभु से जोड़ ले, अन्तर में प्रभु की लगन लगा ले, प्रभु की दीप्त लौ से अपने को जोड़ ले, एक कर ले अर्थात् उस स्वरूप में रुचिपूर्वक लीन हो जा। __ तू यह मनुष्य जन्म पाकर भी इसे निरर्थक ही खोये जा रहा है, तू विषयभोग में अपने आपको लगाए हुए हैं, उनमें ही वृद्धिंगत है। अपने को उस ओर ही बढ़ाये जा रहा है। आयु का एक -एक क्षण व्यतीत होता जा रहा है अर्थात् मृत्यु समीप आती जा रही है, तब प्राणान्त के समय फिर पछताना होगा। ___ स्त्री, शरीर, धन, पुत्र, मित्र, परिवारजन, हाथी, घोड़े, रथ इन सबके प्रति तेरी रुचि है । यह संसार तो स्वप्नवत् है, अस्थिर है । आँख मींचने पर जिस प्रकार दिखाई देता है, वैसे ही यह काल्पनिक, आधारशून्य दिखाई देता है।
अरे-अब तू इनको ध्या ले । अभी अवसर है, ऐसा मंगल अवसर फिर प्राप्त नहीं होगा। द्यानतराय कहते हैं कि अधिक क्या कहा जाए! अरे फिर कोई उपाय शेष नहीं बचेगा।
आव = आयु।
घानत भजन सौरभ
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