SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूर्ख पण्डित होकर, पुस्तक-ग्रन्थ-शास्त्र में देखकर, उसी में समाधान ढूँढ़ता रहता है, देखता रहता है । आँखों से देखकर भी कब सूरज उदित होता है, कत्र छुपता है यह पूछता रहता है । __ लड़ाई के क्षेत्र में अपने को कायर या शूर समझता है और अपनी लड़ाई लड़ने में जीव को कष्ट होता है । अरे ! सब मुझमें हैं और हम सबमें व्याप्त हैं, मुझे कौन सताएगा? कौन बजाता है, कौन गाता है, कौन नचाता है? सब अपनी ही करनी के फल हैं । यह संसार सपने के खयालों के समान है, ऐसा मन में विचार करता है। संसार में कोई एक धन अर्जन करनेवाला है, तो दूसरा निकम्मा मारा-मारा फिरनेवाला है। दोनों ही द्रव्य का विस्तार हैं । सुख-दुःख तो आते-जाते हैं । मैं इन सुख व दु:ख दोनों से न्यारा हूँ. - ज्ञानी इस प्रकार विचार करता है। कोई एक कुटुम्ब साथ लिए है तो दूसरा फकीर है । एक घर तो दूसरा वन चाहता है । अरे घर भी किसका है और वन भी किसका है? ये तो राग की आग है जो जला रही है। सोते, जागते, व्रत करते या खाना खाते जो मान-अपमान दोनों को देखता है, और इन सबमें जागृत रहता है, द्यानतराय कहते हैं कि वह रात-दिन अपनी आत्मा में मगन रहकर कर्मों के आचरण से युक्त होता है। भग = योनि, ऐश्वर्य, धन । १९४ छानस भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy