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राग आसावरी ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचार ।। टेक॥ नारि नपुंसक नर पद काया, आप अकाय निहारै ॥ ज्ञानी. ॥ वामन वैश्य शूद्र औ क्षत्री, चारों भग लिँग लागे। भग वी जासी भोग वि जासी, हम अविनाशी जागे। ज्ञानी. ॥१॥ पंडित मूरख पोथिनिमाहीं, पोथी नैनन सूझै। नैन जोति रवि चन्द उदयते, तेऊ अस्तत्त बूझै । ज्ञानी. ॥ २ ॥ कायर सूर लड़नमें गिनिये, लड़त जीव दुख पावै। सब हममें हम हैं सबमाहीं, मेरे कौन सतावै ॥ ज्ञानी. ।। ३ ।। कौन बजावे अरु को गावै, नाचै कौन नचावै। सुपने सा जग ख्याल मँडा है, मेरे मन भों. आधी ..! ४ 13 एक कमाऊ एक निखट्ट, दोनों दरब पसारा। आवै सुख जावै दुख पावै, मैं सुख दुखसों न्यारा ।। ज्ञानी. ।।५।। एक कुटुम्बी एक फकीरा, दोनों घर वन चाहैं । घर भी काको वन भी काको, ममता-दाहनि-दाहैं। ज्ञानी. ॥६॥ सोबत जागत व्रत अरु खातें, गर्व निगर्व निहारै।। 'द्यानत' ब्रह्म मगन निशि वासर, करम-उपाधि बिडारे। ज्ञानी. ॥ ७ ॥
ज्ञानी अपने ज्ञान में विचरण करता हुआ इस प्रकार विचार करता है कि तूने स्त्री, नपुंसक, पुरुष लिंग में काया को पाया है, पर तेरी आत्मा तो अशरीरी है ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन योनियों से अपनी पहचान बनाता है । पर ये योनियाँ, ये धन, ये भोग सब अस्थिर हैं। आत्मा कभी विनाश को प्राप्त होनेवाली नहीं है, वह तो अविनाशी है।
द्यानत भजन सौरभ
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