SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१५१) सोई ज्ञान सुधारस पीवै॥ टेक॥ जीवन दशा मृतक करि जाने, मृतक दशामें जीवै। सोई. ।। सैनदशा जाग्रत करि जानै, जागत नाहीं सोवै। मीतौंको दुशमन करि जाने, रिपुको प्रीतम जोवै॥ सोई. ॥ १ ॥ भोजनमाहिं वरत करि बूझै, व्रतमें होत अहारी। कपड़े पहिरै नगन कहावै, नागा अंबरधारी॥ सोई. ॥ २॥ बस्तीको ऊजर कर देखै, ऊजर बस्ती सारी ! 'धानत' उलट चालमें सुलटा, चेतनजोति निहारी॥सोई.॥३॥ वह भव्य ही ज्ञानरूपी अमृत के रस का पान करता है, पीता है जो जीवन को और मृत्यु को जानकर, संप्तार के प्रति तटस्थ होकर मृत्युदशा में जीता है अर्थात् जो सदैव मृत्यु के प्रति सावधान रहता है। सोता हुआ भी जो अपने लक्ष्य के प्रति जागता हुआ रहता है तथा जाग्रत अवस्था में कभी बेसुध-अचेत नहीं होता तथा मित्रों को आसक्ति के कारण शत्रु समान समझता है तथा जो विमुख है उनके प्रति प्रीति जताता है। भोजन के समय व्रतों की बात करता है, समझता है और व्रत में कोई आहार ग्रहण नहीं करता । वस्त्र धारण करके जो वैराग्य की भावना करता है और वस्त्र छोड़कर आकाश का वस्त्र धारण करता है। सारी बसी हुई बस्ती को एकान्त रूप/उजाड़ रूप में देखता है और उजाड़ में अपनी बस्ती बसाता है अर्थात् रहता है। द्यानतराय कहते हैं कि इस प्रकार संसार के प्रति उल्टी चाल में वह सुलटी हुई दशा देखता है और अपने चैतन्य स्वरूप को सदैव निहारता रहता है, उसके ध्यान में लगा रहता है वह भव्य ही ज्ञानरूपी अमृत के रस का पान करता है। १७६ धानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy