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( १५२ ) राग काफी धमाल
सो ज्ञाता मेरे मन माना, जिन निज-निज, पर पर जाना ॥ टेक ॥
आना । साना ॥ १ ॥
छहौं दरबतैं भिन्न जानकै, नव तत्वनितैं ताकौं देखें ताकौं जाने, ताहीके उसमें कर्म शुभाशुभ जो आवत हैं, सो तो पर पहिचाना। तीन भवन को राज न चाहै, यद्यपि गांठ दरब बहु ना ॥ २ ॥ अखय अनन्ती सम्पति विलसे, भव-तन - भोग मगन ना । 'द्यानत' ता ऊपर बलिहारी, सोई 'जीवन मुकत' भना ॥ ३ ॥
हे आत्मन्! वह ही ज्ञाता है, वह हीं मेरे मन को मान्य है, जो निज को निज और पर को पर जानता है ।
वह आत्मा को छहों द्रव्यों में सबसे भिन्न जानता है। नौ तत्वों से अन्य है ऐसा जानता है । उसको देखकर जो उसे (निज को) जानता है, उसी की अनुभूति में, रस में डूब जाता है, वह ही आत्म-स्वभाव को ध्याता है। निमग्न हो जाता है ।
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शुभ और अशुभ जो कर्म आते हैं, वे सब पर हैं, ऐसा वह जानता है । उसको तीन लोक की, राज्य की वांछा नहीं है। यद्यपि वह द्रव्य रूप में स्वयं अकेला है, सर्व परिग्रह से रहित हैं ।
वह अपने में निमग्न होकर अपने स्वभाव को अनंत- अक्षय ( क्षयरहित ) संपदा का निश्चय से भोक्ता है, परन्तु इस देह - पर्याय के भोगने में विरक्त है, उसमें मग्न नहीं है।
द्यानतराय कहते हैं कि जन्म मरण से मुक्त ऐसा जो ज्ञाता है वह इस जीवन मैं ही 'मुक्त' कहा जाता है, उस पर मैं बलिहारी जाता हूँ ।
द्यानत भजन सौरभ
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