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________________ (१५०) सोई कर्मकी रेखपै मेख मारै, आपमें आपको आप धारै ।। नयो बंध न करै, बँथ्यो पूरब झरै, करज काढ़े न देना विचारै ॥ १॥ उदय बिन दिये गल जात संवर सहित, ज्ञान संजुगत जब तप संभारे॥२।। ध्यान तरवारसों मार अरि मोहको, मुकति तिय बदन 'धानत' निहारै।।३।। वे ही कर्म की बढ़ती जा रही रेखा पर खूटी गाढ़कर, संयम द्वारा उसे बढ़ने से रोकते हैं जो अपने आप में अपने को धारण करते हैं, चित्त को स्थिर कर आवा-शिटल में रात होते हैं ..... ... ... ... .. नया कोई कर्म बंध नहीं करते। पहले के जो बँधे हुए हैं उनकी निर्जरा करते हैं। (कर्म का) जो कर्ज है, उसे पूरा चुकाते हैं। नया कर्ज लेना नहीं चाहते, उसका विचार ही नहीं करते। जिनके उदय में आए बिना ही कर्म गल जाए. नष्ट हो जाए । ज्ञानसहित जब तप-साधन करे अर्थात् स्व-चतुष्टय में रत हो तब कर्म बल न पाकर अपकर्षण कर जावे, कमजोर पड़ जावे, निष्प्रभावी हो जावे, संक्रमण कर जावे । इसप्रकार आश्रव का होना रुक जावे अर्थात् संवर हो जाये। वे ही कर्म की रेखा मिटा पाते द्यानतराय कहते हैं कि जो ध्यान की तलवार से मोहरूपी शत्रु का नाश करते हैं वे ही मुक्तिरूपी लक्ष्मी के सुन्दर मुखड़े को निहारते हैं। द्यानत भजन सीरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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