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________________ हमें स्पष्ट दृष्टिगत होता है कि पुद्गल पर ' हैं और वह चैतन्य से भिन्न है । जगत में जितने भी जीव हैं वे सब चेतन हैं, वे हमारे जैसे ही हैं, स्वरूप की दृष्टि से हम और वे समान हैं, पर प्रत्येक जीव अपने में स्वतंत्र (इकाई) है। पृथ्वी के स्वरूप को देखते हुए विचारते हैं - यह भूमि एकेन्द्रिय जीव है, चेतन द्रव्य है और हम भी चेतन हैं अर्थात् उसमें भी हमारे समान चेतना है।प्राण हैं तब हम धमाधम करते हुए भूमि को/पृथ्वी को क्यों खोदें? यह चेतन जल के स्वरूप को देखता है और (ज्ञान में) जानता है कि जल भी एकेन्द्रिय जीव है और हम भी जीव हैं; स्वरूप की दृष्टि से दोनों समानरूप हैं तब वह समानरूप जल कैसे पीया जावे? पुद्गलरूप यह शरीर उस जल को क्यों पीवे? उसी प्रकार अग्नि के स्वरूप पर विचार करता हुआ सोचता है कि ज्ञान में अग्नि का स्वरूप प्रत्यक्ष है, वह भी एकेन्द्रिय है, उसमें भी चेतन तत्व है फिर अग्नि जलाकर हिंसा का दोष क्यों लगाया जाए? पवन/वायु के स्वरूप पर चिन्तवन करता है कि पवन में भी जीव है, हमें यह ज्ञान है कि तब पंखा झलकर पवनकायिक जीवों की विराधना क्यों करें? इसी प्रकार यह चेतन वनस्पति को/वृक्ष को देखता है, जानता है कि वनस्पति में/वृक्ष में भी जीव होता है फिर भूख लगने पर उन्हें तोड़कर क्यों खावें? लट, चींटी, मक्खी सब प्राणधारी हैं यह विवेक धारण करने पर इनको कौन सता सकता है? पशु-पक्षी, जलचर सब हमारे जैसे ही हैं, सबमें जीव है, सब चेतन हैं । इसी भाँति देवों में, मनुष्यों में, नारकियों में सभी में समानरूप चैतन्य है । बालक में, बूढ़े में, युवक में, नपुंसक-स्त्री-पुरुष इन सभी देहों में एक-सा चेतन तत्त्व है, इसमें किसी प्रकार की शंका/धोखा नहीं है। इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले मुनि/भव्यजीव सोना-उठना-बैठना-चलना बोलना, आहार-निहार आदि सब यत्नपूर्वक करते हैं अर्थात् ये क्रियाएँ करते समय सावधान रहते हैं कि इन जीवों की विराधना न हो जाये। १६८ धानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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