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राग विलावल सबमें हम हममें सब ज्ञान, लखि बैठे दृढ़ आसन तान ॥ टेक॥ भूमिमाहिं हम हममें भूमि, क्यों करि खोर्दै धामाधूम ॥१॥ नीर-माहिं हम हममें नीर, क्यों कर पीड़े एक शरीर ।। २ ।। आगमाहिं हम हममें आगि, क्यों करि जालैं हिंसा लागि ॥३।। पौन माहिं हम हममें पौन, पंखा लेय विराधै कौन॥४॥ रूखमाहिं हम हममें रूख, क्योंकरि तोड़ें लागैं भूख ॥५॥ लट चैंटी माखी हम एक, कौन सतावै धारि विवेक॥६॥ खग मृग मीन सबै हम जात, सबमें चेतन एक विख्यात॥७॥ सुर नर नारक हैं हम रूप, सबमें दीसै है चिद्रूप॥८॥ बालक वृद्ध तरुन तनमाहिं, षंढ नारि नर धोखा नाहिं।। ९॥ सोवन बैठन वचन विहार, जतन लिये आहार निहार॥१०॥ आयो लैंहिं न न्यौते जाहिं, परघर फासू भोजन खाहि ॥११॥ पर संगतिसों दुखित अनाद, अब एकाकी अम्रत स्वाद ॥ १२ ॥ जीव न दीसै है जड़ अंग, राग दोष कीजै किहि संग॥ १३ ॥ निरमल तीरथ आतमदेव, 'द्यानत' ताको निशिदिन सेव॥१४॥
(यह भजन मुनि के चिन्तवन से सम्बन्धित है।)
मुनि चिन्तवन करते हुए कभी विचार करते हैं कि हम चैतन्यस्वरूप हैं, दृष्टा और ज्ञाता हैं । दृष्टा होकर हम सब (पदार्थों/ज्ञेयों) में व्याप्त हैं और ज्ञाता होकर हम उन सबको जानते हैं। दृढ़ आसन धारणकर ध्यान/चिन्तवन करते हुए हमें
झानत भजन सौरभ
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