SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वे ( मुनि) न तो अपने निमित्त कहीं से आया हुआ आहार (भोजन) करते हैं न किसी के निमन्त्रण र आहार हे बिना पूर्व-निश्चित किये हुए ही दूसरे के घर में प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। वे समझ लेते हैं कि यह जीव 'पर' की संगति में दुःख ही पाता है और जब एकाकी / अकेला अपने स्वरूप में रमण करता है तो आनन्दित होता है, सुखी होता है वह चिन्तवन करता है कि देह पुद्गल है, रूपी है वह ही दिखाई देती है जीव तो अदृश्य है, वह तो दिखाई देता नहीं। फिर राग-द्वेष किससे किया जाए ? केवल आत्मा ही निर्मल किनारा है, स्थान है, तीर्थ है। द्यान्तराय कहते हैं कि दिन-रात इसी की सेवा करो । द्यान भजन सौरभ १६९
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy