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________________ (१३६) मैं निज आतम कब ध्याऊंगा॥ देक। रागादिक परिनाम त्यागकै, समतासौं लौ लाऊंगा॥ मन वच काय लोग शिर भरकै हात समाधि लगाऊंगा। कब हौं खिपक श्रेणि चढ़ि ध्याऊं, चारित मोह नशाऊंगा॥१॥ चारों करम घातिया खय करि, परमातम पद पाऊंगा। ज्ञान दरश सुख बल भंडारा, चार अघाति बहाऊंगा॥२॥ परम निरंजन सिद्ध शुद्धपद, परमानंद कहाऊंगा। 'धानत' यह सम्पति जब पाऊँ, बहुरि न जगमें आऊंगा ॥३॥ हे प्रभु! मैं कब अपनी आत्मा का ध्यान करूँगा! अर्थात वह शुभ घड़ी कब आएगी, जब मैं अपनी आत्मा का ध्यान करूँगा! कब राग-द्वेष आदि भावों का त्याग करके मैं समता में रुचि लाऊँगा! हे भगवन् ! कब मैं मन, वचन और काय, इन तीनों के योग को स्थिर करके, ज्ञान की समाधि में लीन होऊँगा। और कब मैं कर्मों को क्षयकर क्षएक श्रेणी चढ़कर चारित्र मोहनीय की प्रकृतियों का नाश कर सकूँगा। चारों घातिया कर्म नष्ट करके कत्र परम आत्मपद अर्थात् अरहंत अवस्था प्राप्तकर अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख व बल की स्थिति में शेष रहे चार अघातिया कों का नाश करूँगा। कब वह शुभ समय आयेगा जन्न परम अर्थात् सर्वं दोषरहित शुद्ध सिद्ध पद को प्राप्त कर परमानन्द की स्थिति में स्थित होऊँगा। द्यानतराय कहते हैं कि वह अवस्था प्राप्त होने पर मैं आवागमन से मुक्त हो जाऊँगा अर्थात् भव- भव के परिभ्रमण से छूट जाऊँगा। हौं । मैं; खिपक श्रेणी - शपक श्रेणी : १५८ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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