________________
(१३५) मैं एक शुद्ध ज्ञाता, निरमलसुभावराता॥टेक ॥ दृगज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी॥ मैं.॥१॥ तिहुँ काल परसों न्यारा, निरवंद निरविकारा ।। मैं. ।। २ ।। आनन्दकन्द चन्दा, 'द्यानत' जगत सदंदा ॥ मैं. ।। ३ ।। अब चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ।। मैं. ॥ ४॥
हे आत्मन् ! मैं तो एक शुद्ध ज्ञाता हूँ। जो अपने निर्मल स्वभाव में रत हूँ, उसी में पहुआ हूँ !.. सराई श्री सुEिATE: * FREE
दर्शन, ज्ञान, चारित्र अर्थात् रत्नत्रय को धारण करनेवाला मैं स्थिर चेतनावाला
तीनों काल में मैं पर से सर्वथा भिन्ना हूँ, निर्विकार निर्द्वद्व हूँ। मैं आनन्द का पुंज हूँ। द्यानतराय कहते हैं कि जगत तो हंद्वसहित है।
अब मैंने अपने प्रिय चिदानन्दस्वरूप को अपने आप में खोज लिया है, पा। लिया है, देख लिया है।
धानत भजन सौरभ
१५७