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________________ (१३७) राग आसावरी रे भाई! मोह महा दुखदाता ॥ टेक॥ वसत विरानी अपनी मानें, विनसत होत असाता॥रे भाई. ।। जास मास जिस दिन छिन विरियाँ, जाको होसी घाता। ताको राखन सकै न कोई, सुर नर नाग विख्याता॥रे भाई.।।१।। सब जग मरत जात नितं प्रति नाह, राग बिना बिललाता। बालक र करै दुख धाय न, रुदन करै बहु माता॥रे भाई. ।। २।। मूसे हर्ने बिलाव दुखी नहिं, मुरग ह. रिस खाता। 'द्यानत' मोह-मूल ममताको, नास करै सो ज्ञाता॥रे भाई. ।। ३॥ अरे भाई! यह मोह महादु :ख देनेवाला है। पर वस्तु को अपनी मानता है और उसके नष्ट होने पर दु:खी होता है। जिस क्षण, जिस बेला में, जिस दिन, जिस मास में वह पर- वस्तु नष्ट होगी, उसे ख्याति प्राप्त देव, मनुष्य, नाग आदि भी बचाने में, रखने में समर्थ नहीं होते। सारा जगत नित्य प्रति मर रहा है, प्रतिक्षण कोई न कोई क्षय हो रहा है. मृत्यु को प्राप्त हो रहा है । परन्तु उनके प्रति राग/मोह नहीं होने से कष्ट अनुभव नहीं करता। जैसे बालक के मरने पर धाय (वेतन लेकर बच्चा पालनेवाली) को दु:ख नहीं होता, परन्तु माता बहुत रुदन करती है। ___चूहे को मारने पर बिलाव दुःखी नहीं होता, न मुर्गे को मारने पर नाराज होता है। यानतराय कहते हैं कि ममत्व का कारण है मोह, जो उस मोह को मूल से नष्ट करता है वह ही वास्तव में ज्ञाता है, ज्ञानी है। धानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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