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________________ ( १२० ) भजो आतमदेव, रे जिय! भजो आतमदेव, लहो शिवपद एव ॥ असंख्यात प्रदेश जाके, ज्ञान दरस अनन्त । सुख अनन्त अनन्त वीरज, शुद्ध सिद्ध महन्त ॥ रे जिय. ॥ १ ॥ अब अमल अचलकुल अदेह । अजर अमर अख्य अभय प्रभु, रहित विकलप नेह ।। रे जिय. ॥ २ ॥ क्रोध मद बल लोभ न्यारो, बंध मोख विहीन । राग दोष विमोह नाहीं, चेतना गुणलीन ।। रे जिय. ॥ ३ ॥ फरस रस सुर गंध सपरस, नाहिं जामें होय । लिंग मारगना नहीं, गुणथान नाहीं कोय ॥ रे जिय. ॥ ४॥ ज्ञान दर्शन चरनरूपी, भेद सो करम करना क्रिया निश्चै, सो अभेद व्योहार । विचार ॥ रे जिय. ॥ ५ ॥ आप जाने आप करके, आपमाहीं आप | यही ब्योरा मिट गया तब कहा पुन्यरु J पाप ॥ रे जिय. ॥ ६ ॥ स्यादवाद प्रमान । है कहै है नहीं नाहीं, शुद्ध अनुभव समय 'द्यान्नत', करौ अम्रतपान ॥ रे जिय. ॥ ७ ॥ १३४ अरे जिया । अपनी आत्मा का भजन करो। ऐसा करने से मोक्ष पद प्राप्त होवेगा उस आत्मा को भजो जो लोक की भाँति असंख्यात प्रदेशी है । जिसके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त बल प्रगट हैं, जो सिद्धस्वरूप महान है । जो मल -रहित है, अचल - स्थिर हैं, अतुल / तुलनारहित हैं, आकुलतारहित है, जिनके मन, वचन व काय नहीं है । जो रोगरहित, मृत्युरहित, क्षयरहित, भयरहित तथा सभी विकल्पों से रहित है। 1 द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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